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________________ १५७ तवन [दिनन आधिक ] भी निषेध करते-करते आगे बढता है । [ ख. पन्न, किन दिनन. निरजन : i ni t - मा व्यानी किन माना जो चिननक जगदलिप बदना Fत ददनम 111] ४२५. 'खुद ही से काम लोगा' यह तो पहले ही पक्का हो जाना चाहिए। खुदका चल आए विना तो [...] कोई आधार [ ] नही है । ४२६. 'में वर्तमानमे ही परिपूर्ण हूँ' -ऐसा गुनते ही, कुछ करना कराना है ही नहीं - ऐसा जलास तो प्रथमसे ही आना चाहिए और फिर उसीकी पूर्तिके लिए प्रयास करना है । ४२७. 'पहले में सब समझ लू [27 क] पीछे प्रयास करूँगा' - ऐसे तो कार्य होगा ही नहीं । [1-1] प्रयास तो सुनते ही चालू हो जाना चाहिए । फिर धोडी रुकावट आवे तो उसे दूर करनेके लिए सुनने-समझनेका भाव आता है; परन्तु में वर्तमानमे ही परिपूर्ण हूँ' - वहाँ चोटे ( वलगे) रहकर ही सव प्रयास होना चाहिए - वहाँसे तो छूटना ही नहीं चाहिए । ४२८ केवलज्ञानसे अपनेको लाभ होनेवाला नहीं ओर शुभाशुभभावोसे अपनेको नुकसान होनेवाला नहीं, 'मे तो ऐसा तत्त्व हूँ।' [ ध्रुवतत्त्व, उत्पाद-व्ययम निरपा है - ऐसी दृष्टिकी बात है।] जैसे कोई मेरुसे माथा फोडे तो उससे मेरु हिलता नही है, ऐसे ही परिणाम मेरेसे टकराते है तो भी 'अपन' परिणामसे हिलनेवाले नहीं है। ४२९.
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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