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________________ १५८ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) परिणाममे बैठे हो तो द्रव्यमे बैठ जाना है। परिणाम तो कम्पायमान है; द्रव्य निष्कम्प है। कॉपनेवाले परिणामके आश्रयसे कम्पित ही रहोगे; निष्कम्प द्रव्यके आश्रयसे निष्कम्पता होगी । ४३०. संग करनेका भाव आवे, तब भी 'संग नही करना है' - ऐसा भाव कायम ( मुख्य ) रख कर ही संगका भाव होना चाहिए। [ 'असग ही हूँ' ऐसी दृष्टि रखकर अथवा ऐसी दृष्टि करने हेतु सत्सगकी भावना रहनी चाहिए । ] ४३१. अपनेको भावाकार [ परिणामरूप ] मत बनाओ, लेकिन भावोको अपने आकार [ रूप ] बनाओ । ४३२. एक समयकी पर्यायमे अपनापन करके ढीलाढच रहनेसे तो कर्मवर्गणाये घुस जाती है और त्रिकाली नक्कर स्वभावमे अपनापन होते ही, तणाव ( खिंचाव ) होते ही, कर्मादि भागने लगते है । ४३३. प्रश्न :- सामान्य पड़खेको ही जुदा पाड़नेका है न ? उत्तर :- ऐसा कहनेमे आता है । सामान्य पड़खा तो जुदा ही पड़ा - है, लेकिन परिणाममे एकत्व कर रखा है - इसलिए अलग पाड़नेका कहनेमे आता है; असलमे तो जुदा ही पड़ा है । ४३४. ( मुझे ) द्रव्यका बहुत पक्ष हो गया है - इसलिए कथनमे द्रव्यसे [ द्रव्यकी प्रधानतासे ] ही सब बाते आती है । ४३५. [ अगत ] जीवको [ वर्तमानमे ] दुःख लगे तो प्रयास कर-करके सुखको ढूंढ लेता है। लेकिन जो धारणामे ही संतुष्ट हो जाता है तो ( उसे ) दुःख नही लगता, इसलिए इधर [ अन्तर्मे ] ढूँढता ही नही । [ वर्तमानमे दुख
SR No.010641
Book TitleDravyadrushti Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
PublisherVitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar
Publication Year
Total Pages261
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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