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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३)
सहल रहता है, 'रहूँ' - ऐसा नही । २१९.
[तीर्थकरके जन्मोत्सवमे ] इन्द्र नृत्य करके वाहरमे लौकिक अपेक्षासे खुशी मना रहे हो, तो भी उनके अन्दरमे [ परिणतिमे] जो सहज सुख चलता है उसमे, वह हर्षभाव भी सहज ही दुःखरूप लगता है। और यह सहज सुख, उस (हष) भावका सहज निषेध करता है । वाहरमें तो इन्द्र भी हर्षभावसे खुशी मनाते हैं। २२०.
प्रश्न :- [ हमको आत्मामे ] स्थिरता क्यो नही होती ?
उत्तर :- क्षणिक [ अस्थिर] परिणाममे अपनापन है, स्थिर तत्त्वको पकड़ा नहीं है, तब स्थिरता कहाँसे आए ? 'मै अपरिणामी सदैव स्थिर ही हूँ' - ऐसे त्रिकाली-स्थिर तत्त्वमे अपनापन आते ही परिणाममें स्थिरता सहज आ जाएगी, स्थिरता बढ़ेगी और पूर्णता भी हो जायेगी। पहले 'मै त्रिकाली स्थिर तत्त्व हूँ' - ऐसी दृष्टि होनी चाहिए । २२१.
जितना भी देव-शास्त्र-गुरुकी ओर लक्ष्य जाता है उतना नुकसान ही है, [ वहिर्मुख उपयोग होनेसे ] लाभ नही है; यह बात पक्की हो जानी चाहिए । २२२.
प्रश्न :- उपयोगको स्वयंकी ओर ढालनेका ही एक मात्र कार्य करनेका है न ?
उत्तर :- पर्यायकी अपेक्षासे तो ऐसा ही कहा जाएगा । क्योंकि उपयोग दूसरी ओर है तो इधर लाओ - ऐसा कहनेमे आता है। असलमें तो 'मैं खुद ही उपयोग स्वरूप हूँ, 'उपयोग कही गया ही नहीं' - ऐसी दृष्टि होनेपर, [पर्यायअपेक्षासे ] उपयोग स्वसन्मुख आता ही है । २२३.
सुननेके भावमे सुननेवालेको और सुनानेके भावमे सुनानेवालेको