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तत्त्वचर्चा
१२९ भी हलचल नही होती, सुधार-बिगाड़ नही होता - ऐसी दृढ-मज़बूत चीज़ 'मै' हूँ। [- ऐसी दृष्टिवालेका परिणाम सुधर जाता है, फिर भी इसकी अपेक्षा नही होती । ] २६६.
प्रश्न :- परिणाम कैसे सुधरे ?
उत्तर :- नित्य अपरिणामी ध्रुवधाममे दृष्टि बिराजमान करनेसे परिणाम सुधरने लगेगे । २६७.
आख़िर तो सदा एकान्त [ अकेला ] ही रहना है, तो शुरूसे ही [ एकान्तका ] दो-चार-पाँच घण्टोका अभ्यास चाहिए। २६८.
जैसे मृत्युका बाझा तावसे छूटता है, ऐसे 'परिणाम मेरेसे सर्वथा भिन्न है' [-ऐसा जोर देने पर ही ] दृष्टि परिणामसे छूटती है । २६९.
[बाह्य व्यवहारमे ] किसी भी कार्यकी जवाबदारी लेना सो तो [ हमारे लिए ] बड़ा पहाड़ उठाना है । [ बहुत बोझा लगता है । ] २७०. [ अगत ]
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यह जो महाराजसाहबका योग मिला है - वह परम योग है, क्योकि परम स्वभावकी प्राप्तिका कारण है । महाराजसाहब जगत्गुरु है, जो अकेले सिद्ध लोकमे नही जाते, बहुतसे जीवोको साथ लेकर जाते है । यहॉके अधिकांश लोग साथमे चलनेवाले है । २७१.
यह सब [ तत्त्वकी ] बात विकल्पात्मकरूपसे जान लेनेसे शान्ति नही मान लेना, अभेद-दृष्टि प्रकट करना । २७२.
असलमे आत्मा कैसे प्राप्त होवे - यही एक ध्येय होना चाहिए।