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तत्त्वचर्चा
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प्रश्न : - वृत्ति उठती रहती है, वह कैसे रुक जाए ?
उत्तर : - एक समयकी वृत्तिको उसीमें रहने दो । 'मै' त्रिकाली तो एक समयकी वृत्ति मे जाता ही नहीं । त्रिकालीमे अपनापन होते ही वृत्ति भी खिंचीज जायेगी [ खीची चली आएगी] । २५७.
सबसे प्रथम अभिप्रायमे निरावलम्बीपना आ जाना चाहिए । बीचमे [बादमे ] ज़रा-सा [ परका ] अवलम्बन आ जाए, लेकिन उसी समय अभिप्रायमे निषेध [ वर्तता ] है । २५८.
[ ज्ञानीके ] ज्ञानकी रागके प्रति पीठ होती है, मुख नही होता । इधर [ अन्तरमे ] मुख होनेसे राग स्वयं छूट जाएगा । रागको कम करु, छोरे - ऐसा तुफान नही होता । रागको कम नही करना है और लम्बाना भी नही है । 'स्वभावका बल बढ़ते-बढ़ते राग कम होता जाता है ।' ज्ञानका परिणमन अर्थात् स्थिरता - बस ! यही एक रागके नाशका उपाय है । रागको कम करें, [ ऐसा कर्तृत्व भाव ] यह कोई उपाय नही है । २५९.
मै तो यह सब स्वप्न देख रहा हूँ - शरीर, शरीरमे; और मै, मेरेमे हूँ; स्वप्नकी माफिक यह सब हो रहा है। २६०.
प्रश्न :- सीताजी साधर्मी थी और पत्नी भी थी, तो भी रामचन्द्रजीने लौकिकजनोकी मुख्यता करके वात्सल्य अनुरागको भी गौण कर दिया, ऐसा कैसे ?
उत्तर :- देखो ! इससे यही सिद्ध हुआ कि - 'धर्मीको वात्सल्य राग ही मुख्य होता है, ऐसा नही है । कभी कैसा राग आजाए !
और कभी क्या ( दूसरा ) राग आजाए ! [ धर्मात्माको सदैव वात्सल्य होता है । दूसरे प्रसगकी मुख्यताके समय भी वात्सल्यके अभिप्रायमे कोई