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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) सत्य है ? [ और जो बात अनुभवसे नही मिलती वो असत्य है – ऐसा ] फौरन् जान लेता है । ३४१.
इधर [ अन्तर ] दृष्टि हुए बिना ज्ञान यथार्थ नही होता है । दृष्टि होनेपर उत्पन्न हुआ ज्ञान- अपना [ परमे] कितना अटकाव है ? अपनी स्वभावमे कितनी जमावट है ? कितना रस है ? - यह सब सहज जान लेता है । ३४२.
अपनेको तो ज़्यादा ज्ञानका लक्ष्य नही है [ क्षयोपशम बढ़ानेकी चाहत नही है ], सुख पीनेका भाव रहता है । केवलज्ञान पड़ा है, उसके उघड़नेपर ज्ञान तो सबका हो जाऐगा । ३४३ [ अगत ]
सुखका [ अतीन्द्रिय आनन्दका ] अनुभव हुआ... सो, किसीको पूछना नही पड़ता; दूसरे 'ना' कहे तो कहे, अपनेको तो प्रत्यक्ष सुख आ रहा है न ! ३४४.
इधर [ स्वरूपमे ] वर्तमानमें ही मुक्ति पड़ी है, वह दृष्टिमे आ गयी तो दृष्टिमे तो मुक्ति वर्तमानमे ही होगयी और व्यक्तमे भी आंशिक मुक्ति आई । और इसमे [ स्वरूपमे ] मुक्ति है तो मुक्तदशा प्रकट होगी ही । ३४५.
एक भी विकल्प जो उठता है - वह चाहे चितनका ही क्यो न हो (उसमें) ऐसा लगना चाहिए कि मानो अपन छुरोके बीचमे पड़े है । विकल्पमे दुःख ही दुःख लगे तब ही सुखकी ओर ढलना होता है । ३४६.
शक्तिमे सुख भरा पड़ा है । विकल्पमे दुःख ही दुःख लगे तो सुख