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तत्त्वचर्चा
१४१ जाननेकी है । 'अपने' को दृष्टिमे ले लेने पर जो ज्ञान उघड़ता है वह सब जान लेता है । ३३६.
विकल्पमे तीव्र दुःख लगे और विकल्पमे तणीजता ( खीचाता ) नही, उसे मचक कहते है [ क्योकि साधक, स्वरूपमे निरन्तर स्थिर नही रह सकता । ] जिसे मचकमे [ - रागमे ] दुःख ही न लगे, उसको तो मचकमे ही अमचक है अर्थात् वह मचकमे ही समूचा चला गया है; उसे मचक कहनेका भी अधिकार नही है । ३३७.
दृष्टिकी बातको मुख्य रखकर सब खतौनी करनी चाहिए । इधर [ अन्तरमे ] दृष्टि होनेपर जो ज्ञान हुआ, वह ( ज्ञान ) वस्तुको जैसी है वैसी ही जान लेता है । इस दृष्टिके बिना तो किसी बातमे अधिक खिंच जाता है या किसी बातको ढीला कर देता है। परन्तु दृष्टि होनेपर ज्ञान [ मध्यस्थ हो जाता है, इसीलिए ] जिसकी जितनी-जितनी मर्यादा है उसके अनुसार ही जानता है । [ स्वरूपदृष्टिमे सर्वस्वरूपसे स्वस्वरूपकी उपादेयता हो जाती है । और परिणमनका ऐसा वलण हो जानेसे ज्ञानमे अविवेक उत्पन्न नही होता जिससे ज्ञान अयथार्थरूपसे हीनाधिक तूल नही देता । वैसी सम्यक् मर्यादापूर्वक ज्ञानकी प्रवृत्ति रहती है । ] ३३८.
शास्त्रमे सभी प्रकारकी सब पड़खोकी बाते न्याय, तर्कादिसे आती है । कोई जीव वेदान्तमेसे आया हो, कोई कहाँसे आया हो, किसीका कैसा अभिप्राय रहा हो, अतः सब प्रकारसे [ विपर्यासका ] खण्डन कर, यथार्थ बात आनी चाहिए । ३३९.
सब शास्त्रोका मूल तो अनुभूति पर ही आना है । ३४०
जिसको अनुभूति हुई हो, वह जीव अनुभवके बलसे कौनसी बात