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तत्त्वचर्चा
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प्रकटे बिना न रहे । ३४७.
[ स्वलक्ष्यी ] स्वाध्यायको तप कहा है लेकिन, अरे भाई ! इधर अपनी ओर चैतन्यमे जम जाना – यह परम तप [ निश्चय स्वाध्याय ] है । स्वाध्याय तो विकल्प है, उसे उपचारसे तप कह देते है । ३४८.
प्रश्न :- इसको ऑगन तो कहे न ?
उत्तर :- यह ऑगन तो है न ! ... ऑगन तो है न !... ऐसे वज़न देकरके जीव अटक जाते है; परन्तु ऑगन, घर थोड़े-ही है ? घरमे तो उसका अभाव है। [-किसी भी प्रकारके विकल्प चैतन्य-घरमे नही है । ]३४९.
जैसे व्यापारी माल देता है और उसके पैसे ग्राहक देता है, दोनोका अपना-अपना कारण है; एक दूसरेके लिए नही करते है । वैसे ही सुनानेवालेको [ ज्ञानीको ] अपने कारणसे मचक आती है और करुणासे उपदेशका विकल्प आता है; और सुननेवालेको अपने कारणसे सुननेका भाव होता है।
जैसे व्यापारीको अन्यत्र पैसेका बड़ा लाभ होनेवाला हो तो वह ग्राहकके लिए रुकता नही है । वैसे ही यहाँ भी सुनानेवालेका विकल्प टूट जाए तो वह सुननेवालेके लिए रुकता नही है । ३५०.
मूल बातमे अपेक्षा लगाता है तो मुझे तो खटकता है, क्योकि) उसमें जो तीखाश होती है वह टूट जाती है । अपेक्षा लगानेसे ढीलापन हो जाता है। [ मूल बात पर जोर देते वक्त कोई अपेक्षा लगाकर, दूसरी अपेक्षासे ऐसा भी है - ऐसा कहनेसे तो मूल बात गौण हो जानेसे प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, इसीलिए खटकता है । ] [वस्तु अनन्त सामर्थ्यवत है | अत उसके प्रति जोर (भीस/दबाव) आता है । परतु वही दूसरी अपेक्षा