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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३)
प्रश्न :- पक्ष इधर [ स्वरूपमे ] आये बिना कैसे करे ?
उत्तर :- अरे भाई ! विकल्पात्मकभावमे [ निर्णयमे ] तो यह पक्ष करो; पीछे इधर [ स्वरूपमे ] जम जाओ । ३३०.
[स्वरूपकी ] ऐसी रुचि होनी चाहिए कि उसके बिना एक क्षण भी चैन न पड़े । ३३१.
प्रश्न :- राग ज्ञेय है, कि दुःखरूप है ?
उत्तर :- इधर [ स्वभावमे ] आया तो राग ज्ञानमे ज्ञेयरूप जाननेमे आता है, और वेदनमे दुःखरूप लगता है । [ एक ही समयमे ज्ञानके 'जाननेरूप' व 'वेदनेरूप' दो प्रकारके धर्म प्रगट है। 'जाननेरूप धर्म' रागको मात्र ज्ञेयरूप जानकर ज्ञाताभावसे वर्तता है । 'वेदनेरूप धर्म' वेदन करता है, तब ज्ञाताभाव होनेपर भी रागकी आकुलताका वेदन दु खरूप लगता है । इस प्रकार ज्ञानके दोनो धर्म एक साथ वर्तते है, यही अनेकान्त है । ] ३३२.
राग भी उसी समय पूरता सत् है, उसको खिसकाने जाएगा...तो तू खुद ही खिसक जाएगा; उसको उसीमे रहने दो...तुम तुमारेमे रहो, वह (राग) स्वयं ही चला जाएगा । ३३३.
मै तो महाराजसाहबको शुद्ध-निष्क्रिय-चैतन्यबिम्ब ही देखता हूँ । जो भी विकल्प-वाणी-शरीरकी क्रियायें हो रही है उनको महाराजसाहब नही मानता । ३३४.
मोक्ष होवे न होवे - उसकी दरकार नही; [अतीन्द्रिय ] सुख चालू हो गया फिर पर्यायमे मोक्ष (तो) होगा ही । ३३५.
सभी शास्त्रोका-बारह अंगका सार तो 'मैं' हूँ; शेष सब बाते तो