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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३)
'स्वद्रव्यमें जम जाना' यह एक ही कर्तव्य है, वह भी परिणामकी अपेक्षासे । 'मेरी' अपेक्षासे तो 'मै' कृतकृत्य ही हूँ, कुछ भी कर्तव्य नही; 'मैं' तो अनन्त वीर्यकी खान हूँ। [ उसमे – मेरे ऐसे स्वरूपमे – 'कुछ भी करना' - यह भ्रॉति है | ] ३१८.
दूसरे सब पदार्थोको तो छोड़ा और देव-गुरुको चौटा ( चिपक गया ); अब वहॉसे भी उखड़कर इधर [ स्वरूपमे ] चौटो ! ३१९.
'मै तो चैतन्य प्रतिमा हूँ।' यह प्रतिमा कुछ नही देती, इससे उपकार [धर्मलाभ ] नही हो सकता, [ उपचारसे ] कहनेमे आता है । असलमे तो उसका स्वरूप - अहो ! वीतरागी शान्त मुद्रा देखकर...बस, 'मै भी ऐसा ही हूँ' [- ऐसा आत्मस्वरूप दिखता है । ] ३२०.
जैसे वीर रसवालेको [ लडाई आदिके प्रसगमे ] शरीर छूट जानेका डर नही । वैसे ही शान्त रसवालेको पूरा जगत् प्रतिकूल हो जाए, शरीर छूट जाए या ऐसा ही कोई प्रसंग आ जाए तो भी वह डिगता नही । ३२१.
[कृतकृत्य स्वभावके अनुभवमे पर्याय मात्रकी कर्तृत्वबुद्धि मिट जाती है, इस सदर्भमे कहा ] 'मुझे तो शुद्धपर्याय भी करनी नही है, न पुरुषार्थ करना है, न ज्ञान करना है और न ही श्रद्धान करना है - यह सब तो परिणामका कार्य है और 'मै तो अपरिणामी हूँ', परिणाममे कभी जाता ही नही; तो 'मै' उसका [ परिणामका ] क्या करूँ ? - परिणाम ही स्वयं पुरुषार्थ आदि रूप होता है । ३२२.
सुननेवालेको (तो) दीनता है ही, लेकिन दूसरोको सुनाना चाहते हो तो वह [भावमे ] भी दीनता है । ३२३.