Book Title: Dravyadrushti Prakash
Author(s): Vitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
Publisher: Vitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar

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Page 202
________________ १३६ तो उसकी निमित्तके साथ भी एकत्वबुद्धि नही होती है । ३०७. ※ द्रव्यदृष्टि-प्रकाश ( भाग - ३) संसारमे हर विषय में प्रयास करते हो तो इधरका [ अन्तरमे स्वरूपका ] प्रयास भी करो न ! इस प्रयासमे तो उत्कृष्ट शुभभाव होता है, जो अन्य किसी जगह नही होता । यह भी है तो कृत्रिम प्रयास, लेकिन अकृत्रिम प्रयासके पहले यह भी आए बिना नही रहता । ३०८. * 1 नित्य पड़खा और अनित्य पड़खा ये दोनो पड़खे एक वस्तुके है; अब मतलब प्रोयजन - सिद्ध करनेका है तो वह तो नित्य पड़खेको मुख्य करनेसे और अनित्य पड़खेको गौण करनेसे ही सिद्ध होता है । ३०९. * [ विकारी ] पर्याय परकी ओर तन्मयता करती है लेकिन परके साथ तन्मय हो सकती नही; अन्तर्मुहूर्तसे अधिक परकी ओर टिक नहीं सकती । [ जब कि, शुद्ध ] परिणाम त्रिकालीके साथ तन्मयता करे तो ( वह ) वहाँ तो तन्मय हो जाता है; [ साथ ही ] वह तन्मयता [ स्व-सन्मुखता ] सदाकाल टिकती है । ३१०. * जितनी धगश उग्र... उतनी जल्दी कार्य होता है । ३११. * 1 प्रश्न :- मुनिको वस्त्रादि नही होनेसे दुःख नही होता होगा ? उत्तर :- • मुनिराजोको दुःख कैसा ?! उनके तो अन्तरमें आनन्दका स्रोत बहता है; बिजलीके करंटकी माफ़िक आनन्द चलता है; उनको तो वस्त्रकी वृत्तिका उठना ही दुःख है, और जो शुभवृत्ति उठती है वह भी भयंकर दुःखरूप लगती है । [ मुनिदशामे छट्ठे गुणस्थानमे अतअत्मपरिणति बहुत उग्र होती है जिससे वे सहज ही अंतर्मुहूर्तमे निर्विकल्प सप्तम गुणस्थानमे आ जाते है । ] ३१२. +

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