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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग -३) है । छठ्ठी गाथामे सबसे उत्कृष्ट बात आगयी है । 'मै प्रमत्त भी नही, अप्रमत्त भी नही,' कौनसी पर्याय बाकी रही ? २९६.
देव-शास्त्र-गुरुकी तरफ़के लक्ष्य और वलणमे भी भट्ठी-सा दुःख लगना चाहिए । [ ज्ञानीका ] बाहरमे उत्साह दिखता है, लेकिन अन्दरमे भट्ठी-सा दुःख लगता है । २९७.
विकल्पात्मकभावमें यह निर्णय आया कि 'कुछ करना ही नही है। तो इतना मात्र विकल्पात्मक कर्तृत्व छुटनेपर आकुलता उतनी कम हो जाती है; फिर विकल्प रहित (निर्विकल्प ) निर्णय होनेपर सर्वथा कर्तृत्व छूटकर वास्तविक शान्ति होती है । २९८.
सुनने आदिके भाव ज्ञानीको, गणधरको भी आते है तो अपनेको क्यो न आए ? [ - ऐसी बातोके अवलम्बनसे अज्ञानी जीव ] ऐसे-ऐसे पराश्रितभावकी पृष्टि करता है । २९९.
मृत्युके समय जीवको अपनी रुचिका विषय ही मुख्य हो जाता है; अन्य सभी चीजोसे रुचि हट करके, जिसकी रुचि थी उसी एक चीज़की मुख्यता हो आती है । - ऐसे, जिसको आत्माकी रुचि है, उसको मृत्युके समय अपना आत्मा ही मुख्य हो जाता है; उस समय तो सब कुछ समेट लेना है। [- इस बात पर किसी जिज्ञासुने श्रीमद् राजचन्द्रजीके देहान्तसमय कहे हुए वे शब्द कि “मै स्वरूपमे लीन होता हूँ" दोहराए, जिसे सुनकर सोगानीजीने कहा कि 'ऐसा ही होता है' । ] दूसरेसे कहे कि 'मुझे सुनाओ' तो उसकी योग्यता भी उसी प्रकारकी है, तभी ऐसा विकल्प आता है । ३००.
एक [ मूल ] बात यथार्थ पकड़मे आनेपर सब बाते यथार्थरूपमे