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तत्त्वचर्चा
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तक भी नही देगे । २९१.
अपने सहज सुखकी पिपासा होनी चाहिए; जितनी तीव्र पिपासा...उतना जल्दी काम होता है । २९२.
देव-गुरुसे कुछ लेना नही है । उनके स्वरूपको देखकर 'मै भी इन्हीकी जातिका हूँ' - ऐसा जाननेमे आता है; लेना-देना कुछ नही है । दूसरेके साथ लेन-देनका सम्बन्ध ही नही है । अशुद्धपर्यायका दूसरेकी ओर लक्ष्य जाता है । [ इतना ही है ] किन्तु दूसरेसे लेन-देनका सम्बन्ध नही है । २९३.
जो पर्याय जिस कालमे होनेवाली है, तभी होती है । मुनिदशा भी सहज होती है। पहले भावना होती है। लेकिन अभिप्रायकी पहले प्रधानता करो; पीछे योग्यता प्रधानी हो जाओगे । जो पर्याय जब होनेवाली है तब ही होती है । 'अपन' तो जहाँ बैठे है, वहाँ कुछ करना-कराना नही है। 'अपन तो बन्ध और मुक्ति दोनोसे रहित है।' [सम्यग्दृष्टि जीवको मुनिपदसे लेकर पूर्ण शुद्धदशाकी भावना आती है फिर भी उसे अपने अक्रिय चिद्विम्वका ही अभिप्राय मुख्य रहता है । अतएव मुमुक्षु जीवको भी दृष्टिके विषयभूत स्वरूपकी मुख्यतामे रहकर ही अध्यात्मटशाकी भावना होनी चाहिए, वरना पर्यायदृष्टि छूटी नही होनेसे उसे भावनाकी तीव्रतामे भी पर्याय-प्रधानता वृद्धिगत हो जाएगी।] २९४.
दृष्टिके विषयकी हर समय मुख्यता रहनी चाहिए । [ दूसरी ] चाहे जितनी बात आओ, लेकिन उसकी [ दृष्टिके विषयकी ] गौणता नही होनी चाहिए । २९५.
पूरे 'समयसारजी'मे छठी गाथामे सम्यग्दर्शनका ख़ास विषय आगया