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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) जैसे जिसको सूई (Injection) लेनेकी आदत हो गई हो उसको सूई लिए बिना चैन नही पड़ता, वैसे ही जिसको सुनने आदिकी आदत [ ध्येयशून्यवृत्ति ] हो गई हो उसको उसके बिना चैन नही पड़ता । लेकिन [ सुनने आदिके भावका ] तीव्र निषेध आए बिना उनसे छूट ही नही सकते । [स्वरुपदृष्टिके बलसे सभी प्रकारके शुभभाव, परलक्ष्यीभावका निषेध आए विना वे शुभभाव नही छूटते । ] २८५.
प्रश्न :- सम्यग्दर्शनका विषयभूत आत्मा कैसा है ?
उत्तर :- सम्यग्दर्शनका विषयभूत आत्मा - ध्रुव, अभेद, एकरूप, शुद्ध, अखण्ड, कूटस्थ, अपरिणामी है । २८६.
दृष्टिमे तो 'अपन' प्रभु है ! बाहरमे अन्यको 'प्रभुता'मे आगे (विशेष) बढ़ा देखे तो सहज ही प्रमोद-भाव आ जाता है, लेकिन ऐसा भाव भी क्षण पूरता ही आता है, ज़्यादा लगाव नही होता । २८७.
इधर [ आत्मस्वरूपमे ] नही आया तो पर्यायका विवेक भी नही होता । तो कहना पड़े कि भाई ! पर्यायका विवेक रखो ! इधर [स्वरूपमे ] आया तो पर्यायका विवेक तो सहज ही होता है । २८८.
एक समयकी पर्यायको छोड़कर जो सामान्य वस्तु रह जाती है, वही दृष्टिका विषय है । २८९.
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अनादि कालसे भटकते-भटकते जब अपरिणामीमे. [ स्वस्वभावमे ] अपनापन हुआ कि 'मै तो सदा मुक्त ही हूँ'....बस ! यही जीवनकी धन्य पल है । २९०.
वीतरागीके साथ राग करनेका प्रयत्न मूर्खता है; वे तो तेरेको जवाब