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तत्त्वचर्चा
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इस बातमे ज़रा-सा फेर लगता है; परन्तु है रात-दिन जितना बड़ा फेर । [ एकमे पर्यायदृष्टि रहती है जबकि दूसरेमे द्रव्यदृष्टि होती है, इतना बड़ा फेर है । ] २७९.
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प्रश्न :- [ ध्यान करने समय ] सोऽहं... सोऽहं... शिवोऽहं... आदि शब्द क्यो बोलनेमे आते है ?
उत्तर :- यह तो सीधा ध्यान जम न सके तब इन शब्दोके द्वारा कषाय थोड़ा और पतला पड़ता है, [ चञ्चलता घटती है, ] इसलिए है । [ जिनका अन्नर्पुरुषार्थ बलवान हा उनको भी ऐसा बोलना ही पड़ता हो, ऐमा नही हे । ] २८०.
"शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन, स्वयं ज्योति सुखधाम" इसमे पर्याप्त बात बतला दी है । फिर जो बात आती है, वह तो 'परलक्ष्यीज्ञानकी निर्मलता' के लिए सहज हो तो हो ! २८१.
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दृष्टिकी तुलना चारित्रका पुरुषार्थ अनन्तगुना है, लेकिन उसकी भी मुख्यता नही [ क्योकि वह भी पर्याय है ]; दृष्टिके विषयकी मुख्यतामे उसकी भी गौणता रहती है । २८२.
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बाहरसे अपना कोई प्रयोजन ही नही, तो वाह्य पदार्थोसे तो सहज ही उदासीनपना रहे ही । २८३.
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दृष्टि अपनेको प्रभु ही देखती है । कमज़ोरीसे विकल्प आया तो अपनी निदा-गर्दा भी होती है; 'मै पामर हूँ' ऐसा भी विकल्प आता है, परन्तु यह तो क्षण पूरता ही विकल्प है; आ गया तो आ गया । [किसी ज्ञानीको ता दृष्टि-वल प्रवल होनस निन्दा गर्हादिका विकल्प कम भी आता है । ] २८४.