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तत्त्वचर्चा ग्रहण होती है । ३०१.
अपने तो अपना समझना । दूसरा कैसा समझता है, कैसा नही, इसका क्या प्रयोजन ? दूसरेमे रुकेगा तो अपना काल व्यर्थ चला जाएगा । ३०२.
[जो ] क्षयोपशममे बैठे हुए, द्रव्य [ आत्मा ] ऐसा है...ऐसा है - ऐसे द्रव्यकी बाते कर रहा है, वह तो दूर बैठकर द्रव्यकी बात कर रहा है । [ आत्मामे बैठकर द्रव्यका स्वरूप वताना यथार्थ है । ] ३०३.
जब अन्तर्दृष्टि जमे तब ही [ वर्तमान पर्यायकी ] योग्यताका ज्ञान यथार्थ होता है; तभी [ जिस कालकी जैसी ] 'योग्यता' कहनेका अधिकार है। ३०४.
[ निर्विकल्प दशामे ] बिजलीके करंटकी माफ़िक अतीन्द्रिय सुख प्रदेश-प्रदेशमे व्यापक होकर प्रसर जाता है।...झनझनाहट....! काल थोड़ा होनेपर भी क्या ? [ काल थोडा होनेसे उसकी महत्ता कम नही । निर्विकल्प आत्माके अतीन्द्रिय आनन्दकी अनुभवदशाका माहास्य अचित्य-महिमावन्त है क योकि एक क्षणार्धमे अनन्तभवका नाश हो जाता है । ] ३०५.
आत्मा तो गम्भीर है; समुद्रकी माफ़िक अनन्त शक्तियाँ अपनेमे संग्रह करके बैठा है; इसकी दृष्टि होते ही ज्ञानमे भी गम्भीरता और विवेक आता ही है । ३०६.
बाहरके संगका निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध भी पर्यायके साथ है, 'मेरे' साथ नही । लेकिन जिसको पर्यायमे ही एकत्वबुद्धि है, उसकी बुद्धि तो निमित्तके साथ लम्बाती है; किन्तु ज्ञानीको पर्यायमे एकत्वबुद्धि नहीं है,