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तत्त्वचर्चा
प्रश्न :- प्रयास तो करना चाहिए न ?
उत्तर :-- अरे भाई ! कृत्रिम प्रयाससे क् या होगा ? उसपर वज़न नही आना चाहिए । 'मै वर्तमानमें ही निष्क्रिय चैतन्य हूँ' वहाँ [ स्वरूपमे ] आया तो पर्यायमे प्रयास सहज उठता ही है । 'मै' तो अनन्त पुरुषार्थकी खान हूँ न ! एक समयके प्रयासमे थोड़े ही आ जाता हूँ ? ३२४. ·.
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'मै वर्तमानमे ही परिपूर्ण हॅू' फिर [ स्वरूपमे तो ] मुक्तिका प्रयास करनेका भी सवाल नही उठता । करना क्या है ? परिपूर्णमे मुक्ति
क्या करना ! ३२५.
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प्रश्न :
रागको ज्ञानका ज्ञेय तो बनाना है न ?
उत्तर :- रागको ज्ञानका ज्ञेय बनानेको जाते है, यह दृष्टि ही गलत है। खुदको ज्ञेय बनाया, तो राग उसमे [ जुदा ] जणीजता [ जाननेमे आता ] ही है; रागको ज्ञेय क्या बनाना ? ३२६.
प्रश्न :- स्व-परकी प्रतीति करनेका तो शास्त्रमे आता है न ? उत्तर :अरे ! स्वकी प्रतीति करो । परकी प्रतीति [ परमे नही, किन्तु ] उसमे आ जाएगी। अपनी ख़ुदकी प्रतीति करो । ३२७.
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त्रिकालीका पक्ष करो ! ऐसा [ अपूर्व ] पक्ष करो कि अनन्तकालमे कभी हुआ न हो । वर्तमानका पक्ष छोड़ो ! ३२८.
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प्रश्न :- अनुभवमे आवे तो इधर [ स्वरूपमे ] बैठा कहा जाए
न ?
उत्तर :
अनुभवकी [ पर्यायकी ] दरकार छोड़ दो । स्वाद लेना [ पर्याय करना ] यह कोई ध्येय थोड़े ही है ? ध्येयका [ त्रिकाली स्वभावका ] पक्ष करना चाहिए । ३२९