Book Title: Dravyadrushti Prakash
Author(s): Vitrag Sat Sahitya Prasarak Trust
Publisher: Vitrag Sat Sahitya Trust Bhavnagar

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Page 203
________________ तत्त्वचर्चा १३७ 'मैं' तो विकल्पसे शून्य हूँ और मेरे भावोसे मैं भरपूर हूँ। ३१३. अध्ययन आदिका काफ़ी रहस्य पू. गुरुदेवश्रीसे अपनेको मिल गया है। 'क्रमबद्ध' कहाँ लिखा है, अपनेको क्या दरकार है ? सिद्धान्त बैठ गया और अनुभवमे आगया, फिर क्या काम ? - ऐसे महाराजसाहबसे सब बाते अपनेको तैयार मिल गयी है, जैसे कि पिताकी कमाई हुयी पूँजी वारिसेमे (विरासतमे) बिना प्रयत्नके मिल जाए । ३१४, प्रश्न :- ज्ञानीको विषयोमे आसक्ति नही है - इसका मतलब क्या ? उत्तर :- अन्य मतवाले तो इसको दूसरी तरहसे कहते है, लेकिन वैसा नही है । यथार्थमे तो ज्ञानीको अपने त्रिकाली स्वभावमे ऐसी आसक्ति होगयी है कि अन्य किसी पदार्थमे नासक्ति होती ही नही; (व) स्वभावमे इतने आसक्त है । ३१५. प्रश्न :- पहले तो ( बाह्य ) आलम्बन लेना चाहिए न ? उत्तर :- पहलेसे ही 'मै परिपूर्ण हूँ' उसको आलम्बन कैसा ? - ऐसा लेकर, [बाह्य ] आलम्बनसे नुकसान ही है, ऐसे निषेध पूर्वक थोड़ा आलम्बन आजाता है; लेकिन अभिप्रायमे आलम्बन नही होना चाहिए - (बाह्य ) आलम्बनमे पहलेसे ही निषेध-भाव होना चाहिए । ३१६. मृत्युके समय ( कोई ) 'मुझे सुनाओ' ऐसा भाव जब उठता है, तब तो स्वयंकी तैयारी नही है । ( जिसे ) अन्दरमे [ स्वरूपका घोलन ] चल रहा है उसको कोई दूसरा सुनाए - ऐसा विकल्प ही नही उठता, उसको तो उस समय अधिक बल होवे तो निर्विकल्पता आ जाती है; अगर निर्विकल्पता नही आती है तो भी स्वकी अधिकता तो छूटती ही नही । ३१७.

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