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तत्त्वचर्चा
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'मैं' तो विकल्पसे शून्य हूँ और मेरे भावोसे मैं भरपूर हूँ। ३१३.
अध्ययन आदिका काफ़ी रहस्य पू. गुरुदेवश्रीसे अपनेको मिल गया है। 'क्रमबद्ध' कहाँ लिखा है, अपनेको क्या दरकार है ? सिद्धान्त बैठ गया और अनुभवमे आगया, फिर क्या काम ? - ऐसे महाराजसाहबसे सब बाते अपनेको तैयार मिल गयी है, जैसे कि पिताकी कमाई हुयी पूँजी वारिसेमे (विरासतमे) बिना प्रयत्नके मिल जाए । ३१४,
प्रश्न :- ज्ञानीको विषयोमे आसक्ति नही है - इसका मतलब क्या ?
उत्तर :- अन्य मतवाले तो इसको दूसरी तरहसे कहते है, लेकिन वैसा नही है । यथार्थमे तो ज्ञानीको अपने त्रिकाली स्वभावमे ऐसी आसक्ति होगयी है कि अन्य किसी पदार्थमे नासक्ति होती ही नही; (व) स्वभावमे इतने आसक्त है । ३१५.
प्रश्न :- पहले तो ( बाह्य ) आलम्बन लेना चाहिए न ?
उत्तर :- पहलेसे ही 'मै परिपूर्ण हूँ' उसको आलम्बन कैसा ? - ऐसा लेकर, [बाह्य ] आलम्बनसे नुकसान ही है, ऐसे निषेध पूर्वक थोड़ा आलम्बन आजाता है; लेकिन अभिप्रायमे आलम्बन नही होना चाहिए - (बाह्य ) आलम्बनमे पहलेसे ही निषेध-भाव होना चाहिए । ३१६.
मृत्युके समय ( कोई ) 'मुझे सुनाओ' ऐसा भाव जब उठता है, तब तो स्वयंकी तैयारी नही है । ( जिसे ) अन्दरमे [ स्वरूपका घोलन ] चल रहा है उसको कोई दूसरा सुनाए - ऐसा विकल्प ही नही उठता, उसको तो उस समय अधिक बल होवे तो निर्विकल्पता आ जाती है; अगर निर्विकल्पता नही आती है तो भी स्वकी अधिकता तो छूटती ही नही । ३१७.