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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३)
दूसरी-दूसरी वातोसे क्या प्रयोजन ? २७३.
इधर [ स्वरूपमे ] दृष्टि आते ही सुखके स्रोतके स्रोत वहने लगेगे । २७४.
जिस रसकी रुचि होती है, उस रसकी जिस निमित्तसे कृत-कारित-अनुमोदनारूप पुष्टि मिलती है, उसीके संगका भाव होता है । देव-शास्त्र-गुरु शांतरसके निमित्त है, इसलिए [ शातरसकी रुचिवालेको ] उनके संगका भाव आता है । २७५.
निश्चयाभासके निषेधके लिए जब ऐसा कहनेमे आता है कि सुननेका भाव तो गणधरको भी आता है; अध्ययनका भाव तो मुनियोको भी आता है; - इत्यादि कथन आते है, तो अज्ञानीको व्यवहार-पक्षकी पुष्टि हो जाती है और निश्चयाभास हो जानेका डर ( भय ) लगता है, इससे निश्चयपर ज़ोर नही दे सकता और व्यवहारमे तणीज ( खिंच ) जाता है - रागमे आदरभाव रह जाता है । २७६.
'मैं' ऐसा पदार्थ हूँ कि मेरेमे भयका प्रवेश ही नही हो सकता है (तो) फिर भय किस विषयका ? २७७.
[सम्यग्दृष्टि ] चक्रवर्तीको लोग ( यो ) देखे कि यह छ खण्डवाला है । ( परन्तु ) उसकी दृष्टि तो अखण्ड पर है । २७८.
[ अभिप्रायकी ] ज़रा-सी भूल, वह भी पूरी भूल है । 'पर्याय' ध्यान करनेवाली है, और 'मै' तो ध्यानकी विषयभूत वस्तु हूँ पर्याय 'मेरा' ध्यान करती है, 'मैं' ध्यान करनेवाला नही हूँ। 'मै' ध्यान करूँ, इस बातमे; और 'मै' ध्यान करनेवाला नही, 'मै तो ध्यानका विषय हूँ' -