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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) फर्क नहीं पड़ता । अत श्री रामचन्द्रजीके वात्सल्यके बारेमे सीताजी नि शक थी । वैसी नि शकता धर्मीके प्रति रहनी चाहिए । ] २६१.
वात्सल्य, प्रभावना आदिके रागको [ सभी तरहके रागको ] हम तो रोग मानते है, फिर उसको बढ़ाना क्या ? २६२.
द्रव्यलिगीको वस्तुका [ साधारण ] माहात्म्य तो आया, लेकिन वस्तु परोक्ष ही रही, प्रत्यक्ष नही हुई। [परोक्ष ज्ञानमे वस्तु-स्वरूप यथार्थ जाननेपर भी अनन्त प्रत्यक्ष वस्तुकी प्रत्यक्षताका जोर आये बिना प्रत्यक्ष अनुभव नही आता । ] २६३.
आचार्यने दृष्टिके दोषको इतना बड़ा बताया है कि, भाई ! सर्पका कटा तो एक ही दफ़ा मरता है, लेकिन मिथ्यात्वका कटा हुआ अनन्त भवमे रुलता है; - इसलिए इस मिथ्यात्वके महान् पापसे बचनेके लिए, शादी तक कर लेने का कह दिया, क्योकि वह तो मात्र रागका [चारित्रदोषका ] ही कारण है। २६४.
पर्याय [ त्रिकाली ] द्रव्यसे सर्वथा ही भिन्न है; प्रमाणमे अभिन्नता भी कहनेमे आती है, लेकिन प्रमाण निश्चयनयको झूठा करके नही कहता है; निश्चयसे तो पर्याय सर्वथा भिन्न है । प्रदेश एक होनेसे प्रमाण उनको अभिन्न कहता है; प्रमाण अभिन्न ही कहता है - ऐसा नही है; भिन्न-अभिन्न दोनो कहता है । परन्तु 'एकान्त भिन्न है' - ऐसा ज़ोर दिए बिना, पर्यायमेसे दृष्टि उठेगी नही । “अनेकांत पण सम्यक् एकान्त एवा निज पदनी प्रप्ति सिवाय अन्य हेतुओ उपकारी नथी" - यही सत्य है । २६५.
'मैं' इतना मज़बूत स्थल हूँ कि एक समयकी पर्यायमे अनन्त सुख हो, ज्ञान हो या अनन्ती विपरीत पर्याये हो, 'मेरे'मे उन पर्यायोसे कुछ