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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) प्रवृत्तिभावको गौण करके इस एक ही की मुख्यता चलनी चाहिए। - यही प्रयास निरन्तर चलना चाहिए । २५०.
आत्मा, ज्ञान और सुखसे भरा हुआ है फिर अपनेको चाहिए भी क्या ? लोग जन्म-मरणसे छूटना चाहते है, लेकिन 'मै' तो जन्म-मरणसे रहित ध्रुव हूँ; उत्पाद-व्ययके साथ भी 'मै' खिसकता नही । २५१.
_इधरसे [अन्तरमेसे ] जो ज्ञान खिलता है, वो सारे नाटकको [ तटस्थ होकर ] देखता है - कैसे-कैसे भाव उठते है ? कैसे ठगाते है ? कैसे खिंचाव [ परद्रव्य-प्रति] होता है ? - ये सब नाटक, ज्ञान देखते रहता है। २५२.
इतना-इतना खुलासा यहॉसे [ पूज्य गुरुदेवश्रीसे ] बाहर आ चुका है कि पञ्चम आराके अन्त तक चलेगा । २५३.
(मात्र) विचार करनेसे वस्तुका पता नही लगता [ आत्माका अनुभव नही होता] । वस्तु तो प्रत्यक्ष मौजूद है, बस ! इसीमे प्रसरकर बैठ जाना, बिराजमान हो जाना । २५४.
'मैं' ही पुरुषार्थकी खान हूँ न ! दृष्टिने पुरुषार्थकी खानका कब्ज़ा ले लिया, फिर पर्यायमे पुरुषार्थ, सुख आदि सहज होता ही है । २५५.
प्रश्न :- परिणाममेंसे एकत्व छोड़ देना, यही आपका कहना है ?
उत्तर :- बस...यही कहना है । परिणाममेसे एकत्व छोड़ दो ! लेकिन यह एकत्व छूटे कैसे ? - नित्य स्वभावमे एकत्व करे तब । निश्चय नित्य स्वभावमे दृष्टि जमाकर, परिणाम मात्रसे एकत्व उठा लेना । २५६.