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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३)
૧૨૪ है । २४२.
उपयोग अपनेसे बाहर निकले...तो यमका दूत ही आया - ऐसा देखो ! बाहरमे फिर चाहे भगवान ही हों! [उपयोग बाहर जावे ] उसमे अपना मरण हो रहा है। बाहरके पदार्थसे तो अपना सम्बन्ध ही नही, तो फिर उपयोगको बाहरमें लम्बाना क्यों ? २४३
'कुछ करना नही है। हर समय ऐसा भाव रहना [- कर्ताबुद्धि छूट जाना] इससे अधिक मुक्ति कौनसी है ? २४४.
दूसरेसे अपनी प्रसिद्धि होवे, इसमे तो अपनेको पराधीनता आई; खुद तो लॅगड़ा ही रहा । २४५.
बाहरके सत्से - देव-शास्त्र-गुरुसे - तुझे लाभ होनेवाला नहीं है। तेरे सत्से ही तुझे लाभ है। बाहरके सत्से लाभ होवे तो क्या तू स्वयं सत् नही है ! २४६.
वस्तु और वस्तुमे एकाग्रता-तणाव ( खिंचाव ) - बस, ये ही दो बाते है । एकाग्रता होते-होते मुक्ति हो जाती है। [इसके अलावा ] सुनना, तत्त्वचर्चा करना, ये सब विषय-सेवन हैं [क्योकि बहिर्मुखीभाव है ]; अपने विषयको छोड़कर, इन्हे विषय बनाते हैं तो अपना विषय पड़ा रह जाता है। २४७.
सिर्फ़ बैठक ही बदलना है । परिणामपर बैठे हो तो वहाँसे उठकर अपरिणामीपर बैठ जाओ...बस, इतनी-सी बात है । २४८.
कचास (कमी) तो तब कही जावे कि - जब अकचासस्वभावकी दृष्टि हुयी हो; नहीं तो कचास कहाँ है ? - एकान्त परसन्मुखता