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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) कि 'मै विकारी हूँ, इसलिए आत्माको कैसे प्राप्त कर सकूँ ?' अरे भाई ! सुलटे-उलटेकी बात ही नहीं है। परिणामसे छूटा तो ध्रुवपर ही आएगा। [- पर्यायबुद्धि छूटनेपर आत्मामे ही आत्मबुद्धि होगी] । भुंगलीको शुक छोड़ता...तो उड़ ही जाता, क्योकि उड़ना उसका स्वभाव है। - ऐसे परिणामसे खिसके तो त्रिकालीदलमें ही आएगा । २२९.
ध्रुव तत्त्वपर पॉव [ दृष्टि ] रखो...तो पर्यायमे सब कार्य सहज ही होगा । २३०.
आचार्य भगवन्त तो निरन्तर अमृतरसका ही पान करते थे, अमृतरसमे ही मग्न रहते थे। जैसे अच्छा भोजन करते समय अपने कुटुम्बिकजनोकी याद आती है; वैसे आचार्यदेवको करुणा आती है कि भाई ! तुमारे पास भी आनन्दका दरिया पड़ा है, तुम भी उसको पी ओ...पी ओ ! २३१.
वस्तु साक्षात् मौजूद पड़ी है, मात्र कल्पना नही करना लेकिन उस रूप हो जाना - तन्मय होकर असंख्य प्रदेशमें व्याप्त हो जाना । जब वस्तु साक्षात् है तो फिर मात्र कल्पना क्यो करना ? - उस रूप परिणम जाना ! [ स्वरूपके प्रत्यक्ष अनुभव कालमे 'आत्मप्रत्यक्षता'के अवलम्बनसे उत्पन्न पुरुषार्थका यह प्रकट चितार है । ] २३२.
अपने निकाली ध्रुवगुरुको गुरु बनाकर जो शुद्धपर्याय प्रकटी...तो बाहरमें उस वाच्यके बतानेवाले पर गुरुका आरोप किया जाता है। २३३.
परिणाममें फेर-फार करना मुझ चैतन्य-खानका स्वभाव नही है। 'पुरुषार्थकी खान ही मै हूँ' तो फिर एक समयके पुरुषार्थमे 'करनेकी' आकुलता क्यो ? २३४.