________________
तत्त्वचर्चा
१२१
नुकसान है। [- बहिर्मुख उपयोग होनेसे ] दोनोको नुकसानका ही धन्धा है। अपनी-अपनी योग्यतानुसार दोनोको नुकसान है। [धर्मवार्ता सुनानेवाले
और सुननेवालेको भूलसे ऐसा अभिप्राय हो जाता है कि ऐसा कार्य करते-करते लाभ हो जायेगा, परन्तु इस अभिप्रायमे साधनकी भूल गर्भित रहनेसे बहुत बड़ा विपर्यास है । साधकदशामे जो सुनने-सुनानेका राग आता है, वह मात्र चारित्र-दोष है, किन्तु अभिप्रायपूर्वक वैसा राग साधकको नही होता । ] २२४.
सारी दुनियाको छोड़कर इधर [ सुननेको ] आया...तो इधर थपाट लगाकर (झिड़क कर) कहते है कि- अरे भाई! तू तेरी ओर जा । २२५.
म
आत्मासम्बन्धी विकल्प हो या परसम्बन्धी विकल्प हो, विकल्प तो विकल्प ही है। [ उसमे 'मै' नही । ] २२६.
प्रश्न :- वस्तु पकड़नेमे नही आती , तो कहाँ अटकाव हो जाता है ? क्या महिमा नही आती है ?
उत्तर :- एक समयके परिणाममे अपनापन रहता है - बस ! यही भूल है। महिमा तो आती है, किन्तु ऊपर-ऊपरसे । यदि वास्तविक महिमा आजाए तब तो छोड़े ही नही । वस्तुका आश्रय (आधार) पकड़ना चाहिए, उसे नही पकड़ता है । २२७.
पर्याय मात्रकी गौणता करो । अनुभव हुआ, नही हुआ- यह मत देखो । 'त्रिकाली वस्तु ही मै हूँ' । पर्याय मात्रको गौण कर, इधरका [ अन्तर्-स्वरूपका ] प्रयास करो । अभिप्रायमे एक दफा तो सबसे छूट जाना है । २२८.
जैसे मँगलीको पकड़े हुए शुकको ऐसा लगता है कि 'मै उलटा हूँ, दे सुलटा होता तो फ़ौरन उड़ जाता'; ऐसे अज्ञानीको ऐसा लगता है