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तत्त्वचर्चा
अपनी अनन्त परिणतिको 'नित्य' रहकर भोगते रहो; खण्ड-खण्ड होकर भोगनेमें तो अपना नाश हो जाता है । २३५.
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'मै निरावलम्बी तत्त्व हॅू' इसकी तो पूरी मुख्यता होनी चाहिए; और दीनताका [ परावलम्बीपनेका ] पूरा-पूरा दुःख मालूम होना चाहिए । २३६.
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यहाँ [ त्रिकालमे ] अपनापन आते ही मोक्ष अपने आप हो जाता है । दृष्टि 'यहाँ' अभेद हुई तो इसे मुक्ति समझो ! २३७.
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अपने स्वक्षेत्रमे बैठ गया तो परिणाम जाएगा कहाँ ? परिणामका ज़ोर [ परोन्मुखी जोर ] पंगु हो जाएगा । बहिर्मुखतामें तो परिणाम परके साथ चला जाता है । दृष्टि यहाॅ [ अन्तरमे ] जमी तो परिणाममे ज़्यादा दूर जानेकी शक्ति ही नही रहती । २३८.
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यथार्थ रुचि हो तो काल लगे ही नही, रात-दिन, खाते-पीते-सोते उसके ही पीछे पड़े । २३९.
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[ विकल्पात्मक ] कृत्रिम पुरुषार्थकी तो बात ही क्या ? लेकिन अक्रिय [ चिबिम्बकी ] दृष्टिमें तो सहज पुरुषार्थकी भी गौणता है, क्योंकि वह भी क्रिया [ एक समयकी पर्याय ] है । अक्रिय [ स्वरूप ] - दृष्टिमे क्रिया मात्रकी गौणता है । २४०.
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यहाँसे शुरू
सुननेके कालमे भी 'मै निरावलम्बी तत्त्व हॅू' करना चाहिए, फिर सुननेका भाव आएगा किन्तु उसकी मुख्यता नही होगी । २४१.
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परिणामको हेटा नही सकते, परिणाममेंसे एकत्व हटा सकते