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तत्त्वचर्चा
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है । २४९.
[आत्मप्राप्ति कैसे होवे ? - इस विषयमे जिज्ञासापूर्वक पूछे गये प्रश्नका विस्तृत उत्तर -]
रुचिमे खरेखर अपनी ज़रूरत लगे तब अपनी वस्तुकी प्राप्ति हुए बिना नही रहती । चौबीसो घण्टो चितनमे-बेचितनमे एक यही [ स्वरूपका घोलन ] चलता रहे । जिस विषयको रुचि होती है, वह विषय सैकड़ो बाह्य कार्य करते हुए भी चलता ही रहता है । बाहरका उपयोग तो ऊपरी-ऊपरी तौरसे चलता है, उसमे जाग्रति नही रहती; जिस विषयकी रुचि है उसीमे जाग्रति रहती है । सैकड़ो कार्य करते रहनेपर भी सभीकी गौणता ही रहा करती है; मात्र रुचिका विषय ही सदा मुख्य रहता है।
विकल्पात्मक विचारमे भी 'शरीराकार चैतन्यमूर्ति' को टॉक दो...'मै तो यही हूँ' । सुख-दुःखकी जो कोई पर्याय हो, उसकी उपेक्षा रखो । 'मै तो यही हूँ' -विचार चले, उसकी भी गौणता रखो । 'मै तो वैसा का वैसा ही चैतन्यमूर्ति हूँ - बस ! यही दृढता करते रहो।
सुनना, शास्त्र पढ़ना आदि सभीकी गौणता होनी चाहिए; एकान्तका ज़्यादा अभ्यास रहना चाहिए [ ताकि स्वरूपघोलन बढ़े] ।
यह [ सम्यक्त्व ] प्राप्त नहीं हुआ तो जीव निगोदमे चला जाएगा - ऐसे निगोदके भयसे, अपना कार्य करना चाहे तो वो यथार्थ नही । परन्तु [ अभिप्रायमे ] निगोदकी अवस्था हो या सिद्धकी, 'मेरा' तो कुछ भी बिगाड़-सुधार नही [ 'मै' अवस्थारूप नही, ] - ऐसी 'मै अचलित वस्तु हूँ' - ऐसी श्रद्धा जम जानी चाहिए। पर्याय कैसी भी हो उसकी उपेक्षा ही रहनी चाहिए। ___ 'परद्रव्यके साथमे तो कुछ सम्बन्ध ही नहीं' ऐसा तो पक्ष होना चाहिए; बादमे वस्तु [त्रिकाली ध्रुव ] और परिणाम [ उत्पाद-व्यय ] इन दो के विचारमे ही सब समय लगा देना है।
चौबीसो घण्टो...बस यही [ स्वरूपका यूंटण ] चलना चाहिए ।