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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) यहाँ अपनी ओर आते ही कर्मकी खड़खड़ाहट ख़त्म हो जाती है, कर्म-धूलि उड़ने लगती है, पर्यायका बॉकापन-टेडापन भी छूट जाता है, सुख-शान्ति बढ़ती जाती है । २०९.
अपेक्षा-ज्ञान बराबर होना चाहिए, नही तो खतियानेमे फेर हो जाता है । किस अपेक्षासे, किस बातको कितनी मर्यादा तक कहा है, उसका ख़याल होना ज़रूरी है । २१०.
निश्चयाभास (होने)का भय छोड़ देना चाहिए; निश्चयाभासी तो तब कहे कि - जब पर्यायमे स्वाभाविक सुख प्रकटा न हो । परन्तु जिसको सुख प्रकट (अनुभव) हुआ है, वह निश्चयाभासी नही है । २११.
पर्यायको जहाँ (अन्तरमें) जाना है, वह तो निवृत्ति-प्रवृत्ति दोनोसे रहित है, फिर भी वहाँ (अन्तरमें) जानेवालेको निवृत्तिका ही विकल्प बीचमे आता है, प्रवृत्तिसे खिसकनेका ही भाव आता है - यह नियम है । नियम होनेपर भी उसपर वज़न नही है, ऐसा ही भाव बीचमे आ जाता है । २१२.
तुम पन्द्रह सालका सम्बन्ध कहते हो, लेकिन हमारे तो वर्तमान विकल्प जितना ही, एक क्षणका सम्बन्ध है; यह विकल्प छूटा...कि...फिर ख़लास ! ___चक्रवर्ती (सम्यग्दृष्टि)के छियानबे हजार रानियाँ और वैभव आदि होनेपर भी वर्तमान जिस पदार्थकी ओर लक्ष्य जाता है उसीका वह भोक्ता कहलाता है; परन्तु अभिप्रायमे तो उस पदार्थका भोक्ता, उसी क्षण ख़त्म हो गया। [ ज्ञानीपुरुषको सभी प्रकारके सयोगोंसे भिन्नता वर्तती है चाहे सयोग लौकिकदृष्टिसे कितना ही महत्त्वपूर्ण या पुराना हो किन्तु भिन्नतामे एकक्षणमे सब खत्म हो जाता है । ] २१३.