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तत्त्वचर्चा
११७ अज्ञानीको अकेले परिणामका ही वेदन होता है; परिणामके साथ ही समूचा अपरिणामी पड़ा है, उसका वेदन नहीं होता। लेकिन अपरिणामीमें दृष्टि जमाकर, उसमे तादात्म्य होकर, प्रसर कर, अपनापन होते ही उसी क्षणमे 'अपरिणामी' और 'परिणाम' दोनोका एक साथ अनुभव होता है। अकेले परिणामका वेदन तो मिथ्यादृष्टिको ही होता है। ज्ञानीको तो एक साथ दोनोका [ द्रव्य और पर्यायका ] अनुभव रहता है । [ पर्याय स्वरूपाकार हो जाती है, - ऐसी पर्यायके अनुभवको अर्थात् द्रव्यस्वरूपके अभेदभावरूप अनुभवको द्रव्यका अनुभव कहनेमे आता है । वास्तवमे अनुभव, पर्यायकी सीमाका उल्लघन नहीं करता ।] २०४.
'मै निष्क्रिय हूँ' - यह चश्मा तो सदा ही लगाए रखना चाहिए। दूसरा चश्मा लगाते समय भी, यह चश्मा तो लगाए ही रखना चाहिए; इसके बिना तो कुछ भी दिखलाई नहीं देगा। [ यहाँ चश्मा शब्दका वाच्य 'दृष्टिकोण' है । ] २०५.
'मैं' ऐसा अपरिणामी (ध्रुव) पदार्थ हूँ कि तीनो लोकोके सभी पदार्थ इकट्ठे होकर भी मुझे हिला-डुला नही सकते । २०६.
साधक-बाधक - ये सब तो पर्यायका ज्ञान करनेके लिए है। सबलाईका [अनन्त वीर्यके पिण्डरूपका ] चश्मा लगाए बिना, नबलाईका भी (यथार्थ) ज्ञान नही होता है । साधकपना-बाधकपना तो पर्यायकी बात है, 'हमे' तो साधकपने-बाधकपनेकी भी दरकार नहीं है, क्योकि बाधकपना 'मुझे [ त्रिकालीको ] नुकसान नहीं पहुंचा सकता और साधकपना लाभ नही कर सकता; तो फिर इनका विचार क्यो ? २०७.
अपनेमे [ चैतन्य गोलेमे ] ऐसे लीन हो जाना कि उसके रससे परिणति अन्यत्र जाए ही नही; - उसीको वैराग्य कहते है । २०८.