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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - २)
नित्य... 1 ... नित्य... नित्य है । - ऐसा अन्तर ध्रुव भगवान आत्मामे, वीतरागी शान्ति द्वारा, निर्विकल्प शान्ति द्वारा, उसके बल द्वारा - देखो; रागके बल द्वारा नही, निमित्तके बल द्वारा नही, शरीरके बल द्वारा नहीं, शरीरका संघयणका बल था इसलिये हुआ - ऐसा भी नहीं; सो परमात्माको निजस्वरूप ध्रुव... ध्रुव चिद्घनको निर्विकल्प शान्ति द्वारा, अन्दरमें वीतरागी शान्त समाधि द्वारा, उसके बलसे; श्री तीर्थकरदेवने, ऐसे ध्रुवस्वरूपको - देह रहा हुआ सो निमित्तसे कहा; इसमें यह भगवान ऐसा है, ऐसा - अन्तरमें देख लिया है ।
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भावाभावहिं संजुवउ भावाभावहिं सो जि ।
देहि जि दिउ जिणवरहिं मुणि परमप्पउ सो जि ॥४३॥
अहा... हा... हा... हा...! यह परमात्म प्रकाश है न! आत्मा देहमे रहा है, सो असद्भूत उपचरित व्यवहार । असद्भूत पर्याय सो व्यवहार । द्रव्यार्थिकनय सो निश्चय । इसमे पर्याय है सो व्यवहार । व्यवहार है ही नही, ऐसा कौन कहता है ? ऐसे रागादि है ही नही, ऐसा किसने कहा ? यह व्यवहार और रागके सहारे निश्चय है, ऐसा नही है । पर्याय-व्यवहारके सहारे द्रव्य है, ऐसा नही ।
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अहा... हा... हा...! यह अनादि-अनन्त पदार्थ है कि नही ? अन्दरमे पुण्य और पाप, आये और गये । भगवान आत्मा अनादि-अनन्त ध्रुव पदार्थ है कि नहीं ? यह आत्माकी वर्तमान दशामे, हालतमे, उत्पाद-व्ययका होना सो व्यवहार है । इसलिये एक न्यायसे उसको अभूतार्थ कहा है । तो भी आश्रय लेनेवाली पर्याय है । और पर्याय है सो व्यवहार है । और व्यवहारसे निश्चय प्राप्त होता है, ऐसा नही है ।
द्रव्यका
प्रश्न :- निश्चयका आश्रय तो व्यवहारने (- पर्यायने) किया ने ? उत्तर :- पर्यायने आश्रय किया, तो किसका किया ? किया । पर्यायने विषय किया है अर्थात् भूतार्थ द्रव्य इसका विषय है । पर्यायके आश्रयसे भूतार्थ विषय नही होता है । यह सूक्ष्म बात है ।