________________
द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग -३) सभी ज्ञेयोमे ज्ञानको अपना प्रयोजन भासित नही होता ।] १४.
सुन-सुन करके मिल जायेगा, यह दृष्टि झूठी है । [कार्यसिद्धि] अपने [अन्तर्पुरुषार्थ] से ही होगी । सुनना, सुनाना, पढ़ना - ये सभी [ बहिर्मुखीभाव, कार्यसिद्धिके लिए ] बेकार हैं; ये हों तो भले हो; लेकिन उसका खेद होना चाहिए, निषेध आना चाहिए । १५.
___ मैं पहले तो सब सुन लूं, जान लूं पीछे पुरुषार्थ करुंगा [- ऐसा • परिणाम, स्वभावकी अरुचिका द्योतक है] - ऐसे पीछेवाले सदा पीछे-पीछे ही रहेगे । यहाँ तो वर्तमान इसी क्षणसे ही [पुरुषार्थ ] करनेकी बात है। १६.
व्यवहारनयको अभूतार्थ कहनेसे संक्षेपमें परिणाम मात्र [जो कि व्यवहारनयका विषय है ] अभूतार्थ है - ऐसा कहा है; चाहे तो परिणाम अशुभ हो, शुभ हो या शुद्ध हो । १७.
अपने परिणाम तक ही अपनी (कार्य) सीमा है; इससे आगे तो कोई द्रव्य जा ही नहीं सकता । १८.
परिणाम अपना है तो भी उसको आप खुद ही [ कर्ताबुद्धिसे ] पलट नहीं सकते । परिणाममें कर्ता-कर्मपनेका धर्म है, इसलिए वो तो पलटेगा ही । जब दृष्टि बाहर झुकी है; दृष्टिका प्रसार अपनेको छोड़कर बाहरमें है तो परिणाम भी बाहर झुकेगा। और यदि दृष्टि अपने स्वभावकी ओर है, तो परिणाम भी अपनी ओर झुकेगा ।
अपनेको तो परिणाम भी पलटाना [ फेरफार करना] नही है । 'मैं' अपरिणामी हूँ और पलटना मेरा धर्म ही नहीं है; वह तो परिणामका धर्म है । दृष्टिकी अपेक्षासे शुद्धपरिणाम भी मेरेसे अलग ही है; ज्ञान उसको अपना अंश.जान लेता है। १९.