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तत्त्वचर्चा ही कहाँ ? -वह तो परमे चली गई । [ मिथ्यादृष्टि जीवको प्राय भोगोपभोगके अशुभ परिणामे रस आता है जो स्वय मिथ्यात्वके सद्भावका द्योतक है । ] ४४.
"अनेकान्त पण सम्यक् ऐकान्त ऐवा निजपदनी प्राप्ति सिवाय अन्य हेतुए उपकारी नथी" - श्रीमद्जीका यह वाक्य मुझे बहुत प्रिय लगता है। ४५.
दूसरेसे सुनना-मॉगना - सब पामरता है, दीनता है, भिखारीपना है। मेरेमे क्या कमी है, जो मै दूसरेसे मॉगू ! 'मै तो स्वयं ही परिपूर्ण
"अहो ! जे भावे तीर्थकरगोत्र बन्धय ते भाव पण नुकसान कर्ता छे" यह बात कहनेकी किसकी ताक़त है ? - यह तो गुरुदेवश्रीकी ही सामर्थ्य है ! ४७.
तीर्थकरकी दिव्यध्वनिसे भी लाभ नही होता, तो फिर और किससे लाभ हो ? वह [ दिव्यध्वनि ] भी अपनेको [ स्वको ] छोड़कर एक भिन्न विषय ही है। [यहॉ पर सुननेके बहिर्मुखी परिणामसे छूटकर अतर्मुख होनेकी प्रेरणा है।] ४८.
विकल्पसे और मनसे [ परलक्ष्यीज्ञानमे ] किया हुआ निर्णय सच्चा नही । अपनी ओर दृष्टिको तादाम्य करनेपर ही अपनेसे किया हुआ निर्णय सचा होता है। पहले विकल्पसे अनुमानसे [स्वलक्ष्यीज्ञानमे] निर्णय हो, उसमें भी लक्ष्य तो अन्तरमे ढलनेका ही होना चाहिए । ४९.
'मैं' तो अडिग हूँ किसीसे डिगनेवाला नही हूँ। जैसे इस देहाकारमे