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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) पू. गुरुदेवश्रीने वस्तु-स्वभाव कितना स्पष्ट कर दिया है ! वह तो पका-पकाया हलवा है; अपन तो सीधा खाते है, नही तो हमारी तो शास्त्रमेसे निकालनेकी इतनी शक्ति नही है। १३६.
___ 'एक समयकी ज्ञानपर्याय स्वतन्त्र है, (उसमें) पूर्वपर्याय भी कारण नही; उसमें तीन कालके पदार्थ जाननेकी ताकत है' - ऐसा सुनकर मुझे तो ऐसी चोट लगी कि तबसे मेरा पढ़ना कम हो गया ।...चलो न ! पर्यायका स्वभाव ही जाननेका है... तो सहज जाननेमे आ जाएगा, [ जाननेके लिए ] आकुलता क्यो करे !... यहाँ [ अन्तरमे ] सुख पीवो न !... न्याय आदि नक्की करनेमे [ विकल्प वृद्धि होनेसे ] आकुलता होती है... अपनेको तो सुख चाहिए । १३७.
असलमे बात यह है कि सबकी सब धारणा तो [अज्ञानी भी] सच्ची कर लेता है, परन्तु पर्यायमे बैठकर [ अहभाव रखकर ] द्रव्यको देखता है, तो द्रव्य जुदा का जुदा पड़ा रहता है। पर्यायमें बैठकर द्रव्यको नहीं देखना है, किन्तु द्रव्यमे बैठकर द्रव्यको देखना है, तो द्रव्यमें अपनापना प्रसर जाता है [- अभेदता होती है। ] पर्यायमें बैठनेसे [ - एकता करनेसे ] द्रव्य तो दूर ही पड़ा रहता है। १३८.
गुरुदेवश्रीकी सिहगर्जना ऐसी है कि दूसरे को निर्भय बना देती है । वही जंगलके सिंहकी गर्जना तो दूसरेको भयाकुल बनाती है। - दोनोंमें बहुत फर्क है । १३९.
थोड़ा यह तो कर लूं... यह तो जान लूँ... सुन तो लूँ - यह सब [ अभिप्राय ] अटकनेका रास्ता है। [ अपने ] असंख्य प्रदेशमे प्रसरकर, पूरे का पूरा व्यापक होकर, तन्मय रहो न !... सुख-शान्ति बढ़ती जाएगी, विकल्पादि टूटते जायेगे । १४०.