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तत्त्वचर्चा
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लेनेका अभिप्राय तो नही होना चाहिए । ] १३०.
एक समयकी पर्यायमें ही तो वेदन आता है; शक्तिमें तो वेदन है नही । इसलिए यह वेदन ही प्रसिद्ध होनेसे, उसको ही अज्ञानी 'आत्मा' मान लेता है । वास्तवमे तो ["नित्य स्वरूप'] 'आत्मा' क्षणिक पर्यायमें जाता ही नही, वैसा का वैसा ही त्रिकाल रहता है। - उसीमे अपनापन हुए बिना सुख-शान्ति हो नहीं सकती । १३१.
गुरुदेवश्रीके उपदेशमें इतना खुलासा है कि इस नीवसे धर्म पंचमकाल तक टिकेगा, ऐसा दिखता है। १३२.
परिणाममे बैठकर (त्रिकाली) वस्तुको देखनेसे वस्तु भिन्न दिखती है । इसलिए परिणामसे भिन्न होनेके लिए वस्तुमें बैठकर देखना है, तभी वस्तुमे अपनापन [ एकत्व ] होनेसे पर्यायका कार्य भिन्न दिखने लगेगा; और [ - ऐसी ] भिन्नता दिखनेसे पर्यायका नाश होते हुए भी [ द्रव्यमे ] अपनापन तो त्रिकाल ही रहता है तभी तो पर्यायके नाश होनेसे आकुलता नही होगी; और इधरमे [ त्रिकालीमे ] बैठनेसे सुख-शान्ति बढ़ेगी । १३३.
___ असलमे तीव्र दुःख [ मिथ्यात्वका ] लगे, तो सुख मिलता ही है । विकल्पमे इतना (तीव्र) दुःख ही दुःख लगे तभी सुखकी ओर जाते है, तो सुख मिलता है । १३४.
मुझे तो "ये षट्र आवश्यक नही, लेकिन एक ही [ अन्तर्मुख होना ही] आवश्यक है।" वह पढ़कर इतना आनन्द हुआ था कि वह मुझे स्पष्ट याद है ! १३५. [ अगत]