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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) होती है। यदि अटकावरूप विचार आदिको कारण माना जाए तो विचारसे छूटकर अन्दर आ नही सकते । [- इन्हे ] अटकाव माननेपर ही अन्दर आ सकते है । मन्द शक्तिवश पर्यायमे अनेक तरहका विचार चलता है, उसमे उल्लास भी होता है, किन्तु ऐसा चितन आदि कारण नहीं, बल्कि अटकाव ही है। १४४.
प्रश्न :- परिणाम अन्दरमे जमते नही, बाहर क्यो दौड़ते है ?
उत्तर :- बछड़ेको बाँधे नही तो बाहर चरने लगता है; यदि खूटेमे बॉध दे तो फिरा तो करे, परन्तु वहॉसे बाहर नहीं जा सकता है। - ऐसे ध्रुवमे पर्यायको बॉध देवे तो पर्याय ध्रुवमे ही फिरा करेगी, बाहर नही जाएगी। फिरना तो उसका [ पर्यायका ] स्वभाव है; लेकिन ध्रुव-खूटेमें ही फिरेगी, और सुख मिलता रहेगा । १४५.
अपनेको तो सुख पीनेकी अधिकता रहती है, जाननेकी नही । और खरेखर तो विकल्पसे जो जानते है सो तो सच्चा जानना ही नहीं है; अन्दरमे अभेदतासे जो सहज जानना होता है - वही सच्चा ज्ञान है । परसत्तावलम्बी ज्ञानको तो हेय कहा है न ! शिवभूतिमुनि विशेष जानते नही थे, फिर भी अन्दरमें सुख पीते-पीते उनको केवलज्ञान हो गया । १४६.
देव, शास्त्र, गुरु, श्रवण, विचार, वांचन, मनन, उघाड़ और एक समयकी पूर्व-उत्तर पर्याय जो-जो साधनरूप कहनेमे आता है - वह सब [ निश्चयसे ] बाधकरूप है। - ऐसा नहीं माने, तब-तक तो त्रिकालीमे आ नही सकते । ऊपर-ऊपरसे बाधकरूप कहे और अन्दरमे साधनरूप मानता रहे, तो वहाँ ही झुकाव रहा करेगा, त्रिकालीमे नही आ सकेगा । १४७.
पहले तो यह बात नक्की कर लो कि सुननेसे ज्ञान नहीं होता;