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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) इसी स्थल पर जम जाओ, तब अनुभव होता है। १८५.
'मैं' ऐसी भूमि हूँ जहाँसे क्षण-क्षणमे नया-नया फल उत्पन्न होता ही रहता है । जैसे भूमिसे ऋतु-ऋतुके अनुसार अनेक फल उत्पन्न होते रहते है, वैसे 'मै ऐसी भूमि हूँ' जहाँसे सुखका फल उत्पन्न होता ही रहता है । मैं' अमृतरससे भरा हुआ हूँ। 'मै' तो ऐसी भूमि हूँ जिसे फलके लिए जलकी भी ज़रूरत नही रहती, क्योकि 'मैं' स्वयं ही सुखरूप हूँ दूसरे पदार्थोकी अपेक्षा ही नहीं । १८६.
प्रश्न :- जम जाना भी तो पर्याय ही है न ?
उत्तर :- अरे भाई ! आख़िर कार्य तो सब परिणाममे ही आयेगा। परिणामसे घबराओ मत, लेकिन परिणामपर खड़े भी मत रहो । कार्य तो परिणाममे ही आता है । अपरिणामीमें जम गया (स्थिर होगया) तो कार्य तो परिणाममे ही आयेगा और वेदन भी पर्यायका ही होगा। 'अपरिणामी' 'परिणाम' दो अंश मिलकर पूरी [प्रमाणज्ञानकी विषयभूत] वस्तु है। १८७.
अपन तो अपने ही सुख-धाममे बैठे रहे, जमे रहे...बस ! - यही एक बात कायम रख करके, दूसरी-दूसरी सभी बातोको खतिया लो। १८८.
(अज्ञानी जीवको) ज्ञानका थोड़ा क्षयोपशम होवे और थोड़ा विकास भी होता जाए तो वह उसमे ही रुक जाता है; मै थोड़ा समझदार तो हूँ और पहलेकी अपेक्षा शान्ति भी तो बढ़ रही है, इस तरहसे मै आगे बढ़ तो रहा हूँ - ऐसे सन्तोष मानकर अटक जाता है । १८९.
यहाँ (अन्तर्मुख) बैठते ही...बस !...इधर अपने असंख्यात प्रदेशमे दृष्टि लगाते ही यहीसे सीधा सिद्धलोकमें जायेगा। १९०.
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