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तत्त्वचर्चा सामान्यसे [ - सामान्य स्वभावके आश्रयसे ] ही ज्ञान होगा। फिर भी सुननेका विकल्प उठे तो उसमे खेद होना चाहिए । 'मैं' तो वर्तमानमे ही परिपूर्ण हूँ, वर्तमानसे ही 'मुझे कुछ करना नहीं है । परिणाममे पुरुषार्थ सहज होता है । करु... करु... यह तो आकुलता है, बोझा है । १४८.
यहाँ तो परिणाम मात्रको व्यवहार कहते है । मोक्ष और मोक्षमार्ग सब व्यवहार है । 'मै तो अक्रिय ध्रुव तत्त्व हूँ' । १४९.
अपना सुख देखा नही, इसलिए किसके साथ मिलान करे कि - यह देव-गुरु आश्रित वृत्ति भी दुःख है; [ अज्ञानीने ] इसीलिए एकान्त दुःखको सुख मान लिया है । १५०.
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वस्तु-स्वरूप जैसा है वैसा ही है तो फिर अपेक्षा लगाकर ढीला थोड़े ही हो सकता है ? १५१.
अपने द्रव्यमे एकत्व किए बिना, रागसे और शरीरसे भिन्नता नही हो सकती; भले ही 'भिन्न है... भिन्न है' ऐसा कहे । लेकिन अपने द्रव्यमे एकत्व होते ही सहज भिन्नता हो जाती है, विकल्प उगना नही पड़ता; सहज ही भिन्नता रहती है। १५२.
प्रश्न :- अधिक गुणीका बहुमान करना कि नहीं?
उत्तर :- अभिप्राय तो दूसरेका बहुमान करनेका होवे ही नहीं; और खिंचावके कारण बहुमान आजाए तो उसे दीनता माननी चाहिए, उसका भी खेद होना चाहिए । १५३.
देव-गुरुके प्रति जो मचक होती है वह भी नपुंसकता है; और अभिप्रायमे मचक होवे तो [ अनन्तानुबन्धी कषायके कारण ] वह अनन्ती