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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३)
नपुंसकता है। १५४.
(शास्त्रमें) मुनिके लिए ऐसा कहा है कि - यदि अन्य मुनि बीमार हो तो वैयावृत्य करना । - वह तो विकल्प होवे तो ऐसा होवे, उसकी बात है। अपनेमे एकाग्र हो तो प्रथम तो वही कर्तव्य हैविकल्प कर्तव्य नही । १५५.
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अधिक पुण्य - वह तो विष्टाका बड़ा ढेर है । १५६.
केवलज्ञानकी पर्याय भी जब उपेक्षणीय है [ दृष्टिका विषय नही ]; तब फिर क्षयोपशमज्ञानकी तो बात ही क्या? [द्रव्यदृष्टि किसी भी-केवलज्ञान तककी - पर्यायको विषय नहीं करती । तब छद्मस्थ साधकको अपनी क्षयोपशमज्ञानकी पर्यायकी प्रधानता किसी भी हालतमे, अर्थात् ज्ञानकी निर्मलता व विशालता कितनी भी क्यो न हो उसकी मुख्यता, आनी ही नही चाहिए ।] १५७.
कोई भी कथन समझनेके लिए यदि (वक्ताके) अभिप्रायको छोड़कर अर्थ करने जाएगा तो अर्थ ग़लत ही होगा। १५८.
शुभरागको कर्तव्य माननेकी तो बात ही कहाँ ? 'मेरा' तो कोई कर्तव्य ही नही, ऐसा पहले पक्का होना चाहिए । [ ध्रुवमे कर्तव्य कैसे हो सकता है ? 'मै तो ध्रुवतत्त्व हूँ' । ]१५९.
पहले विकल्पात्मकतामें तो यह निर्णय कर लो कि, परिणामकी अपेक्षासे इधर [ अन्तरमे ] ही जमनेका है। दूसरा कुछ भी करनेका नहीं है। - ऐसे विकल्पात्मक निर्णयका भी अवलम्बन नही होना चाहिए। और 'मैं तो अपरिणामी हूँ, परिणाममे जाता ही नहीं' - ऐसा अभ्यास