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तत्वचर्चा
अज्ञानी उत्पाद-व्ययके साथ-साथ चलता जाता है । [ पर्यायदृष्टि होनेसे, परिणामका उत्पाद-व्यय होनेपर स्वयका उत्पाद-व्यय अनुभवता है।] परन्तु ज्ञानीने नित्यमे (द्रव्यमें) अपना अस्तित्व स्थापित किया है अतः वह उत्पाद-व्ययके साथ नहीं चला जाता, किन्तु उत्पाद-व्ययको जान लेता है। ५७.
ज्ञानकी पर्याय आती है अन्दरसे, परन्तु [ अज्ञानीको ] बाहरका लक्ष्य होनेसे ऐसा दिखता है कि मानो पर्याय बाहरसे आती हो; इसलिए अज्ञानीको परसे ज्ञान होता है - ऐसा भ्रम हो जाता है । ५८.
अनन्त तीर्थकर हो गए, लेकिन अपने तो गुरुदेवश्री ही सबसे अधिक है। जैसे कि - अपनेको धनकी ज़रूरत हो और कोई लखपति अपनी ज़रूरत-अनुसार धन दे देवे, तो वह (लखपति) अपने लिए तो अन्य करोड़पतिसे भी अधिक है। - ऐसे ही, गुरुदेवश्री अपने लिए तो तीर्थकरसे भी अधिक है, अपना हित तो इनसे हुआ है । ५९.
[ द्रव्यलिगीकी भूल ] द्रव्यलिगी होकर ग्यारह अंग तक पढ़ लेते है, परन्तु त्रिकाली चैतन्यदलमे अपनापन स्थापित नही करते; - यही भूल है, दूसरी कोई भूल नही । ६०.
पू. गुरुदेवश्रीने शास्त्र पढ़ते समय कहा कि - जैसे व्यापारमे बहीके पन्ने फेरते है वैसे ही ये पन्ने है, कोई फर्क नही; यदि इधरकी [ ध्रुव चैतन्यकी ] दृष्टि नही, तो दोनों समान है । ६१.
तीर्थकर-योग और वाणी मिली तो ठीक है, भविष्यमे भी इसी भावसे मिलेगी- ऐसे उसमे हौस (उत्साह-रस) आता है, तो उससे कैसे छूटेगा? लाभ मानता है तो कैसे छोड़ेगा ? इससे [ ऐसे भावसे ] नुकसान ही है,