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तत्त्वचर्चा
शास्त्रमे परिणाम देखनेकी बात आती है, तो [ अज्ञानी ] परिणाम देखते रहते है; ध्रुववस्तु रह जाती है । परिणामको ही देखते रहनेमे परिणामके साथ एकता होती है, परिणामीमे एकता नहीं रहती - अनित्यमे नित्य चला जाता है। पर्यायकी शुद्धि ऐसी है...ऐसी है - ऐसे पर्यायकी बातमे रस पड़ जानेसे नित्यका ज़ोर नही रहता; पर्यायमे ज़ोर करनेकी तो आदत पड़ी ही है । ७..
आखी वस्ट [ प्रमाणका विषय ] बतानेमे नित्य और अनित्य बतानेमे आत है; इसमे अनित्य अंग दूसरे (द्रव्य)का नही है, ऐसा बतानेके लिए है । परन्तु दृष्टिका विषय तो 'नित्य ही हूँ' है, और अनित्या मेरेसे भिन्न ही है । उसका (उत्पाद-व्ययका) भाव और मेरा (ध्रुवका) भाव विरुद्ध है । ७५.
शक्तिकी तरफ देखे तो इतना भारी-भारी लगता है कि सम्पूर्ण जगत् फिर जावे तो भी वह [ अनन्त शक्तियोका पिण्ड ] नही फिर सकता है, ऐसा घनरूप है; उसमे कुछ विचलितता ही नही होती । ७६.
[ अज्ञानी ] परिणाममे बैठकर शक्तिको देखता है - 'शक्ति ऐसी है...ऐसी है' उसमे तो देखनेवाला और शक्ति दो अलग-अलग चीज़ हो जाती है। जैसे दूसरा दूसरेकी बात करता हो वैसा हो जाता है। [ वास्तवमे द्रव्यस्वभावको देखते ही अभिन्नता होनी चाहिए, परन्तु परिणाममेसे एकत्व नही छूटने के कारण द्रव्यस्वभावमे अभेदता नही होती । ] ७७.
दर्पणमे जो पर्याय दिखती है, वह तो ऊपर-ऊपर है, अन्दरमे जो दल पड़ा है वह तो जैसा का तैसा है, वह पर्यायरूप होता ही नही । - ऐसे त्रिकाली स्वभावका दल वैसा का वैसा ही है, पर्यायमे आता ही नही । ७८.