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तत्त्वचर्चा
[ अपने पूर्व-जीवनके बारेमे कहा ] मुझे पहलेसे इन्द्रियविषयोकी ओरका रस नही था; और विकल्पोमे कषायकी भट्ठी जलती हो - ऐसा लगता था; ऐसे वेदनमे वो क्या है...क्या है ? - ऐसे विचारोंकी धुनमे रहता था; [ इतनी धुन थी, कि ] मुझे शहरके ख़ास व परिचित रास्तोके अलावा किसी रास्ते आदिका पता नही है और कोई बातका ख़याल नही रहता था। विचारका ज़ोर पहलेसे ही था, उसमे तीक्ष्णता थी। दिगम्बरशास्त्र देखे तो इधरसे निकला और उधर क्रियाकाण्डमे पड़ा, परन्तु उसमें भी कोई शान्ति नही मिली, वह भी छोड़ दिया । पीछे 'आत्मधर्म' देखते ही चोट लगी और सब बात ख़यालमें आने लगी । ६६.
सब बातका मसाला गुरुदेवश्रीने तैयार कर रखा है; जिससे कोई बात विचारनी नही पड़ती । नही तो, साधक हो फिर भी (उसे) मसाला तैयार करना पड़ता है। ६७.
प्रश्न :- अनुभव होनेके बाद परिणाममे मर्यादा आ जाती है न ? विवेक हो जाता है न ?
उत्तर :- विवेककी बात एकबाजू रखो; एकदफ़ा विवेकको छोड़ दो ! [- पर्यायकी सावधानी छोड़ दो । ] परिणाम मात्र ही 'मैं' नही; 'मै' तो अविचलित छूटा हूँ मेरेमे क्षणिक अस्तित्व है ही नही । विवेकके 'बहाने भी जीव परिणाममे एकत्व करते है । ६८.
[ अज्ञानीको ] कषायकी मन्दतामे थोड़ा विषय छूटे तो इसमे ठीक मानने लगते है। लेकिन वह भी तीव्र कषाय ही है, उसमे कषाय (रस) भरा पड़ा है । ६९.
प्रश्न :- शुरुआतवालेको अनुभवके लिए कैसे प्रयत्न करना ? उत्तर :- 'मै' परिणाम मात्र नही हूँ; त्रिकाली-ध्रुवपनेमे अपनापन