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तत्त्वचर्चा
अधिक है जब कि पचम गुणस्थानवर्ती श्रावकके अशुभभावमे भी विभावरस कम है | तत्त्वत मोक्षमार्गमे शुद्धताकी कमी-बेशीका नियम विभावरसपर आधारित है, न कि शुभाशुभभाव पर । ] ९४.
प्रश्न :-चौथे गुणस्थानवालेको वस्तुका अनुभव है और स्थिरताका प्रयत्न भी करता है फिर भी अनुभवमे काल क्यो लगता है ?
उत्तर :- चारित्रकी पर्यायमे इतनी अस्थिरता है, पुरुषार्थकी कमी है, पर्यायकी ऐसी योग्यता है, लेकिन दृष्टिमे उसकी गौणता है। वर्तमानमें ही पूर्ण हूँ" इसमे पर्यायकी कमती-बढ़ती गौण है । ९५.
___अज्ञानी, पर्यायमे ही अपनापन, सन्तोष, अधिकता आदि रखते है । पर्यायमें उल्लास तो है न ! पर्यायमें विशेषता तो है न ! पर्यायने द्रव्यका महात्म्य तो किया न ! पर्याय अन्तरमे तो ढलती है न ! - ऐसे-ऐसे किसी न किसी प्रकारसे पर्यायमे ही वजन रखते है। लेकिन पर्यायसे हटकर, 'मै तो त्रिकालीदल जैसा का तैसा हूँ, परिणाम मात्र मेरेमे नही है' - ऐसे ध्रुवपनेमे, अधिकता नही थापते । कारण कि वेदनमे तो पर्याय आती है, और द्रव्य तो अप्रकट है; अप्रकटको तो नही देखते है, पर्यायमे ही अपनापन रखते है।
लेकिन, यहाँ तो कोई भी पर्याय हो - सुख अनन्त हो या ज्ञान अनन्त हो या वीर्य अनन्त हो तो भी 'मुझे कुछ परवाह नही, 'मैं' तो स्वभावसे सुखस्वरूप ही हूँ। - ऐसे ध्रुव स्वभावमे ही अधिकपनेका वेदन करनेका है और शुद्धपर्यायोको भी गौण करना है - गौणपने वेदन करना है । ध्रुववस्तुमे 'मै-पना' स्थापित किये बिना, पर्यायसे एकत्व नही छूट सकता । ९६.
इस अपेक्षासे नित्य हूँ, इस अपेक्षासे अनित्य हूँ, ऐसे दोनों ही ठीक है - ऐसे (अज्ञानी) कहते है। अरे ! 'मै नित्य ही हूँ' - ऐसा ज़ोर देना