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तत्त्ववर्या लगे तो ढूँढे ही । ८५.
जहाँ तक अन्दरमे [ आत्मामे ] डुवकी नही मारता, वहाँ तक प्रयल चालू रखना चाहिए । ८६.
प्रश्न :- रुचि बढ़ते-बढ़ते वस्तुकी महत्ता बढ़ती जाती है और सुगमता भी ज़्यादा भासती है ?
उत्तर :- रुचि बढ़ती है, ऐसे (पर्यायके) लक्ष्यमे भी पर्यायकी महत्ता होती है, उसमे [पर्यायमे] 'मै-पना' (अहम्पना) दिखता है तो त्रिकालीमे नही जम सकते । - यह तो विकल्पवाली रुचि है । 'मै तो परिणाम मात्रसे भिन्न हूँ' - ऐसे त्रिकालीका अनुभव होना, वो ही अभेदकी रुचि है। ८७.
कोई एकान्तसे वेदान्तमे खिच नही जावे, इसलिए दोनों बाते बतायी है । पर्याय दूसरेमे नही होती, कार्य तो पर्यायमे ही होता है; ऐसा कहें तो वहाँ [पर्यायकी रुचिवाले ] चोट जाते है - ऐसा तो है न ! ऐसा तो होना चाहिए न ! अरे भाई ! क्या होना चाहिए ? - छोड़ दे सब बाते जानने की ! 'मै तो त्रिकाली ही हूँ', उत्पाद-व्यय कुछ 'मेरे' मे है ही नही। ८८.
प्रश्न :- शुरुआतवाला विचारमे बैठता है तो 'मै ऐसा हूँ, मै ऐसा हूँ' - ऐसा करता है, तो घण्टा-आधा घण्टामे थकान लगती है, सो क्यो?
उत्तर :- विकल्पमे तो थकान लगे ही न ! 'मै ऐसा हूँ' - ऐसा अनुभव करनेमे शान्ति है । ८९.
एक ही 'मास्टर की' (Master Key) है; सब बातोमे - सभी