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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३)
श्रद्धामे त्रिकालीपना आ गया तो विकल्पसे भिन्नता हो गई, वही मुक्ति है । चारित्रमे मुक्ति हो जायेगी । ७९.
प्रश्न :- वस्तुस्वभावका लक्ष्य हो जानेपर कार्य होता ही है ?
उत्तर :- लक्ष्य और उसका ध्येय दूसरा होनेसे वस्तु दूसरी दिखती है, अतः लक्ष्यकी पर्यायसे देखना नहीं है। [ यथार्थ लक्ष्यमे लक्ष्य करनेवाली पर्याय गौण हो जाती है । ] 'मै ही स्वयं वस्तु हूँ' – ऐसे देखनेसे लक्ष्यकी पर्याय गौण हो जाती है, तो उस पर्याय पर वज़न नही जाता, मुख्यता नही आती, उसमे मुख्यता तो त्रिकालीपनेकी रहती है । ८०
बस, एक ही बात है कि 'मै त्रिकाली हूँ' - ऐसे जमे रहना चाहिए । पर्याय होनेवाली हो सो योग्यतानुसार हो जाती है, 'मैं' उसमे नही जाता । क्षयोपशम हो, न हो; याद रहे, न रहे; परन्तु असंख्य प्रदेशमे, प्रदेश-प्रदेशमे व्यापक हो जाना चाहिए। ८१.
प्रश्न :- भगवानकी वाणी बहुत ज़ोरदार होगी?
उत्तर :- वाणीमे क्या ज़ोर होता है ! अपनेमे ज़ोर हो तो वाणीमे ज़ोरका आरोप देते है । ८२.
द्रव्यलिगीको त्रिकालीके प्रति उत्साह नही आता; उत्साह आता तो 'त्रिकाली' हो जाता । ८३.
'कुछ करे नही तो गमे नहीं' ऐसी आदत [ कर्ताबुद्धि ] हो गयी है । लेकिन 'कुछ करे तो गमे नही' ऐसा होना चाहिए । ८४.
[ आत्माके लिए ] रुचिकी आवश्यकता चाहिए । दरकार होनी चाहिए । [ विकल्पोसे ] थकावट होनी चाहिए । तीव्र प्यास (तालवेली)