________________
तत्वपर्ण
९९ कहते है कि 'ऐसी उनकी काललब्धि' । तो अज्ञानी कहता है कि अरे, पुरुषार्थको उड़ा दिया ! पर, अरे भाई ! पुरुषार्थ इससे जुदा थोड़े ही है ? ! कोई स्वच्छन्दता न कर लेवे, इसलिए 'पुरुषार्थ करना' ऐसा कहा है । त्रिकालीमे अपनापन होनेमें पुरुषार्थ तो होता ही है । लेकिन यह [ ऐसा पुरुषार्थ कि] पर्याय जितना 'मैं' नही हूँ, 'मैं तो विकलीदल ही हूँ। ११३.
जो निर्विकल्पता होती है उसमें तो पूरा जगत्, देह, विकल्प,उघाड़ (क्षयोपशम ज्ञान) आदि कुछ दिखता ही नहीं, एक खुद ही खुद दिखता है । अन्दरमें जाए तो वाहरका कुछ दिखे ही नही । ११४.
अरे भाई ! तू अपने सारे के सारे असंख्य प्रदेशमे चैतन्यमूर्ति हो, उसीमे बैठे रहो न ! उठकर कहाँ जाते हो ? ११५.
'शास्त्रसे ज्ञान नही होता' ऐसा सुने और 'वरावर है' ऐसा कहे, परन्तु अन्दरमे [ अभिप्रायमे ] तो ऐसा मानता है कि बाहरसे [ शास्त्र आदिसे ] ज्ञान आता है । 'वाणीसे लाभ नही' ऐसा कहे, लेकिन मान्यतामे सुननेसे प्रत्यक्ष लाभ होता दिखे तो थोड़ा तो सुन लूँ, इसमे क्या नुकसान ? [- ऐसे भ्रममे अज्ञानी रहता है । ] अरे भैया ! इसमे नुकसान ही होता है, लाभ नहीं । ऊपरसे नुकसान कहे और अन्दरमें लाभ मानकर प्रवर्ते, यह कैसी वात | अज्ञानी उसमे अटक जाते है। ११६.
प्रश्न :- रुचि क्यो नही होती ?
उत्तर :- ज़रूरत दिखे तो अन्दरमे आए विना रहे ही नही । सुनते है (उसमें) प्रसन्नता आदि होती है, लेकिन सुखकी ज़रूरत हो तो अन्दर आवे । ज़रूरत न हो तो वहाँ [ प्रसन्नता आदिमे ] ही ठीक माने; लाभ है, नुकसान तो नही न ! [- ऐसा भाव रह जाता है । ] ११७.