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तत्त्वचर्च
अपरिणामीमे सदा ज़ोर आना चाहिए। परिणाममे विकल्पसे हटनेका और आह्लादरूप अनुभवमे जानेका भाव होता है, लेकिन अधिकता इसमे नही; अधिकता तो त्रिकालीमे ही रहनी चाहिए । १०३.
श्रवण-वांचन आदि तो सब ऊपर-ऊपरकी बाते हे; अन्दरमेसे सहजरूप (भाव) आना चाहिए । १०४.
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यहाँ तो दातार हो जानेकी बात है । यहाँसे [ दूसरे उपदेशदातासे ] ले लूँ, ऐसी बात ही नही । एकबार लाभ मिला तो दूसरी बार भी लाभ मिल जायेगा, यह प्रत्यक्ष लाभ मिल रहा है न... . ऐसे-ऐसे करके ( अज्ञानी) उसमे ही रुक जाता है । अन्दरके दातारकी बात तो रही नाम मात्र, ओर बाहरके दातारकी मुख्यता !! १०५.
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शास्त्रमे बात आए कि बर्फ़के संयोगसे पानी ज़्यादा ठण्डा होता है; ऐसे अधिक गुणवानके संगमे रहनेसे ज़्यादा लाभ होता है - ऐसा सुननेपर, वहाँ अज्ञानी चौट जाता है;... असंगकी बात छोड़ दी ! गुणहीनका संग छोड़कर गुणवानका संग किया, परन्तु असंगता रह गयी । [ असगताका अभिप्राय रखकर ही सागमे रहना योग्य के । ] १०६.
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शास्त्रोमे अनेक तरहके कथन आते हैं तो अज्ञानी इनमे उलझ जाता है । लेकिन 'निश्चयकी वात मुख्य करके, निमित्तका ज्ञान करनेका है' यह भूल जाता है । क्योकि अनादिसे संगका अभ्यास है न ! इससे एक संग [ अशुभ ] छोड़कर, दूसरा संग [ शुभको ] पकड़ लेता है । १०७.
अनुभवकी बात तो क्या कहे !! एक दफ़ा तो बिजली के करंटके माफ़िक अन्दरमे उतर जाना चाहिए। जैसे करंटका काल थोड़ा, फिर भी सारा शरीर झनझना उठता है; उसी तरह असंख्य प्रदेशमे
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