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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) लाभ नहीं; लाभ तो अपनेसे ही है, वर्तमानसे ही खुदसे लाभ है; ऐसा ज़ोर न होवे तो परमे अटक जाएगा । [ बहिर्मुख परिणामका रस, परिणामको अतर्मुख होनेमे बाधक होता है, ऐसा यहॉ अभिप्राय है। ] ६२.
प्रश्न :- आत्मानुभव होनेके बाद ज्ञानीजीव न्याय-नीतिसे धनादिकी प्रवृत्ति करते है न ?
उत्तर :- करना-धरना नहीं रहा, जो पर्याय आनेवाली है वह योग्यतानुसार आ जाती है। परन्तु उधर उसका [ ज्ञानीका ] लक्ष्य नहीं, लक्ष्य तो इधरका [अन्तर ज्ञायकतत्त्वका ] है । अन्तरमें एकत्व हुआ तो (स्वतः) परिणाम [ विकार ] मर्यादित हो जाते है । लेकिन मर्यादित ही होता है...होता है -ऐसा कहनेसे, उसकी [ कहनेवालेकी ] दृष्टिमे परिणामको मर्यादामें रखनेका ही प्रयत्न रहता है, अर्थात् परिणामको ही [ एकत्वबुद्धिपूर्वक ] देखता रहता है; और परिणामकी मर्यादाको देखते रहनेसे अपरिणामीका ज़ोर छूट जाता हैं। इसीलिए कहते हैं कि जो परिणाम होनेवाला है वो हो जाता है । ६३.
तीव्र प्यास [ जिज्ञासा ] लगनी चाहिए । प्यास लगे तो जैसे-तैसे बुझानेका प्रयत्न किये बिना रहे ही नही । ६४.
प्रश्न :- अनुभवके लिए विचार-मनन-घुटणमें रहना चाहिए ?
उत्तर :- पर्यायमें बैठकर [ - पर्यायमे 'मै-पना' रखकर अर्थात् पर्यायमे अस्तित्वकी स्थापना करके ] घुटण-मनन करनेमें पर्यायमें ठीकपना [ सन्तोष ] रहता है । और द्रव्यमे बैठनेसे [- द्रव्यमे अस्तित्व स्थापित करनेसे ] घुटण-मनन सहज होता है; घुटण आदिमें ज़ोर नही रहता, सहज होता है; ज़ोर तो इधरका [ अन्तर्तत्त्वका ] रहता है। पर्यायमें बैठकर घुटण आदि करनेसे अन्दरमें नही आ सकते । ६५.
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