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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३) स्थित आकाश अडिग है, हिलता-चलता नहीं; वैसे ही 'मै' भी अडिग हूँ। ५०.
अन्तरमे आनन्दकी गूंट पीते हुए बाहरमे आना गमे (रुचे) ही किसको ! बाहरमे आते ही तो बोझा लगता है । ५१.
प्रश्न :- चतुर्थ गुणस्थानमे [ निर्विकल्प ] अनुभव कितने समयके अन्तरालमे होता होगा?
उत्तर :- ऐसे अनुभवके अन्तरालकी कोई मर्यादा नही है । वह तो यदि विशेष अशुभमे हो तो [ सामान्यतया ] अन्तराल लम्बा भी हो जाए और शुभमे हो तो जल्दी-जल्दी भी अनुभव होवे । किसीको महिनेमे दस बार भी हो। ५२.
चैतन्य-गठरी 'मै' ही हूँ - ऐसी पकड़ हो जानेसे मति-श्रुतज्ञान अन्तरमे ढल जाता है; इसलिए अन्तरमे ढलनेके लिए [ उपदेशमे] कहने में आता है । ५३.
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'मैं' वर्तमानमे ही समझणका पिण्ड हूँ। ५४.
* [ असाताके उदयमे ] सम्यग्दृष्टिको दुःखका वेदन होता है, लेकिन अपने स्वभावकी अधिकताके वेदनमे उस वेदनकी गौणता हो जाती है। ज्ञानमें शान्तिके वेदनके साथ-साथ दुःखका वेदन आता है, परंतु वह वेदन मुख्य नही होता । ज्ञानीको अपने स्वभावकी ही अधिकता रहती है, अपने स्वभावकी अधिकता कभी नही छूटती । ५५.
जब दृष्टि अपने स्वभावमे प्रसर जाती है, तब पाँचो समवाय अपने ज्ञानमें ज्ञेय हो जाते हैं । ५६.
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