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द्रव्यदृष्टि- प्रकाश ( भाग - ३)
परकी ओर चली जाती है, तो भी स्वरूपाचरणकी च्युति नही होती । ३७.
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( स्वरूपकी) दृष्टि होनेपर भी चारित्रगुणकी योग्यता ही ऐसी होनेसे चारित्रगुण पूरा (शुद्ध) नही परिणम जाता । श्रद्धागुणका स्वभाव ऐसा है कि एक ही क्षणमे द्रव्यमे पूरा का पूरा व्याप्त हो जाता है । चारित्रगुणका स्वभाव ऐसा है कि वह क्रम-क्रमसे ही पूरा होता है । - ऐसे दोनो गुणोके स्वभाव ही अलग-अलग हैं । ३८.
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जब दृष्टि अपने स्वरूपमें तादात्म्य होती है तो थोड़े काल तक राग आता तो है, लेकिन वह लॅगड़ा हो जाता है; उसको आधार नही रहता । ३९.
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'मैं' तो कभी भी नही हिलनेवाला खूँटा हूँ । परिणाम आते है और जाते है, मगर 'मै' तो खूँटेकी तरह अचलित ही रहता हूँ । ४०.
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बहिर्मुख होनेसे ज्ञान खिलता नही और अन्तर्मुख होनेसे भीतरसे ही केवलज्ञान प्रकट हो जाता है । अपनी ओर ही देखनेकी बात है । ४१.
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[ एक जिज्ञासु ] आत्माको ही पकड़नेकी बात है ? [ भाईश्री ] पकड़ना क्या ? 'मै तो स्वयं हूँ ही' - पकड़ना - फकड़ना सब परिणामकी अपेक्षासे कहने आता है । परिणाम अपनी ओर झुका तो परिणामकी अपेक्षासे आत्माको पकड़ा - ऐसा कहनेमे आता है । ४२.
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अपने द्रव्यमे दृष्टि तादात्म्य होते ही ज्ञान प्रमाण हो जाता है; तब ज्ञान [ अन्य ] सभी बातें [ यथार्थरूपसे ] जान लेता है । ४३.
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जब अपनी ओरसे खिसक कर बाहर जानेका ही निषेध है, तो अशुभ जाकर परमे रस पड़ जावे तब तो दृष्टि अपने द्रव्यमे रही