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द्रव्यदृष्टि-प्रकाश (भाग - ३)
___अपने त्रिकाली अस्तित्वमे अपनापन होनेसे पर्यायबुद्धि छूट जाती है । २५.
विभाव तो मेरेसे बहुत दूर है । यहाँ तो परिणाम [ शुद्धपर्याय ] भी मेरेसे भिन्न है। 'मै तो अपरिणामी हूँ' - एक समयके परिणामके साथ नहीं बहता । २६.
प्रश्न :- द्रव्यको परिणामी कहें तो क्या हर्ज है ?
उत्तर :- 'परिणाम' 'परिणामी' कहनेमे थोड़ा शब्दफेर है। परिणामसे परिणामीको बतानेमें भी परिणामकी ओर लक्ष्य चला जाता है। इसलिए [ परिणामका लक्ष्य नही करनेके हेतुसे ] 'परिणाम' 'परिणामी' नहीं, परन्तु 'अपरिणामी' और 'परिणाम' - ऐसा कहो । २७.
शास्त्रमें व्यवहारकी कितनी बाते जीव स्वच्छन्दमे नही चढ़ जाए, इस हेतुसे होती हैं। ...तो जीव उन बातोंको पकड़कर, घोटालेमे [ एकातमे ] चढ़ जाता है । [- व्यवहारको उपादेय मान लेता है । ]. २८.
'मैं' [त्रिकाली ] परिणाममें नहीं जाता। [त्रिकाली स्वभावमे अपनापन होनेसे ] परिणाम सहज ही मेरी ओर आता है । २९.
'मै वर्तमानमे ही परिपूर्ण हूँ, कृतकृत्य हूँ, मुझे कुछ करना-धरना ही नही है' - ऐसी दृष्टि होनेपर, परिणाममे आनन्दका अंश प्रकट होता है; और बढ़ते-बढ़ते पूर्णता हो जाती है । ३०.
प्रश्न :- शुद्ध परिणाममें द्रव्य व्यापक है कि नही ? उत्तर :- पूरे द्रव्यकी [प्रमाणज्ञानकी ] अपेक्षासे देखा जाए तो द्रव्य