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'तत्त्वचर्चा
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प्रश्न :- प्रथम पात्रताका क्या स्वरूप है ?
उत्तर :
अपने द्रव्यमे दृष्टिको तादात्म्य करना, प्रसारना । बाह्यमें तादात्म्य कर रही दृष्टिको अपनेमे तादात्म्य करना, यही प्रथम पात्रता है । २०.
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[ आत्मिक आनन्दके विषयमे आपने कहा ] जब एकबार आनन्दकी घूँट पी ली... तब तो बार-बार वही घूँट पीनेके लिए अपनी ओर आना ही पड़ेगा। दूसरी किसी जगह परिणतिको रस ही नही आयेगा; बार-बार अपनी ओर आनेका ही लक्ष्य रहेगा; दूसरे सब रस उड़ जायेगे । २१.
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[ सहज पुरुषार्थके विषयमे आपने कहा ] पुरुषार्थ करूँ... पुरुषार्थ करूँ यह बात भी नही है [ सहज पुरुषार्थका ऐसा स्वरूप ही नही है । ] 'मै वर्तमानमें ही अनन्त पुरुषार्थका पिण्ड हॅू' [- ऐसे स्वाश्रयमे ] पर्याय द्रव्यकी ओर ढल जाती है। इसलिए [ उपदेशमे ] पर्यायकी अपेक्षासे पुरुषार्थ करनेका कथन आता है । २२.
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'मै स्वयं ही वर्तमानमें भगवान हूँ' - [ इसमे ] भगवान होना भी क्या है ?... अपने स्वभावमें दृष्टिका प्रसार होते, पर्याय मेरी ओर झुकते -झुकते, पर्यायमे केवलज्ञान-सिद्धदशादि होती ही है; परन्तु मुझे तो इससे भी प्रयोजन [ दृष्टि ] नही है । २३.
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पहेले तो [ तत्त्वकी ] धारणा बराबर होनी चाहिए । लेकिन धारणा अन्तरमे उतरे तभी सम्यग्ज्ञान होता है । धारणामे भी इधरका [ आत्माका ] लक्ष्य होना चाहिए । [ धारणा स्वलक्ष्यी होनी चाहिए | स्वलक्ष्यी धारणा प्रयोगकी उत्पादक होती है । और प्रयोगान्वित धारणामे धारण किया हुआ उपदेश जब अन्तरमे उतरता है तभी सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होता है । ] २४.